अरबी का इश्के मजाज़ी फारसी में इश्के हक़ीक़ी हो गया। Sad Ghazal फारसी ग़ज़ल में प्रेमी को सादिक (साधक) और प्रेमिका को माबूद (ब्रह्म) का दर्जा मिल गया। ग़ज़ल को यह रूप देने में सूफ़ी साधकों की निर्णायक भूमिका रही। सूफी साधना विरह प्रधान साधना है। इसलिए फ़ारसी ग़ज़लों में भी संयोग के बजाय वियोग पक्ष को ही प्रधानता मिली।
मुझ पे हैं सैकड़ों इल्ज़ाम मिरे साथ न चल
तू भी हो जाएगा बदनाम मिरे साथ न चल
तू नई सुबह के सूरज की है उजली सी किरन
मैं हूँ इक धूल भरी शाम मिरे साथ न चल
अपनी ख़ुशियाँ मिरे आलाम से मंसूब न कर
मुझ से मत माँग मिरा नाम मिरे साथ न चल
ग़ज़ल क्या है
ग़ज़ल शेरों से बनती हैं। हर शेर में दो पंक्तियां होती हैं। शेर की हर पंक्ति को मिसरा कहते हैं। ग़ज़ल की ख़ास बात यह हैं कि उसका प्रत्येक शेर अपने आप में एक संपूर्ण कविता होता हैं और उसका संबंध ग़ज़ल में आने वाले अगले पिछले अथवा अन्य शेरों से हो, यह ज़रूरी नहीं हैं।
तू भी खो जाएगी टपके हुए आँसू की तरह
देख ऐ गर्दिश-ए-अय्याम मिरे साथ न चल
मेरी दीवार को तू कितना सँभालेगा ‘शकील’
टूटता रहता हूँ हर गाम मिरे साथ न चल
हिंदी के अनेक रचनाकारों ने इस विधा को अपनाया। जिनमें निराला, शमशेर, बलबीर सिंह रंग, भवानी शंकर, जानकी वल्लभ शास्त्री, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, त्रिलोचन आदि प्रमुख हैं। इस क्षेत्र में सर्वाधिक प्रसिद्धि दुष्यंत कुमार को मिली।
तुम को भुला रही थी कि तुम याद आ गए
मैं ज़हर खा रही थी कि तुम याद आ गए
कल मेरी एक प्यारी सहेली किताब में
इक ख़त छुपा रही थी कि तुम याद आ गए
उस वक़्त रात-रानी मिरे सूने सहन में
ख़ुशबू लुटा रही थी कि तुम याद आ गए