कभी कभी याद में उभरते हैं नक़्श-ए-माज़ी मिटे मिटे से
वो आज़माइश दिल ओ नज़र की वो क़ुर्बतें सी वो फ़ासले से
कभी कभी आरज़ू के सहरा में आ के रुकते हैं क़ाफ़िले से
वो सारी बातें लगाव की सी वो सारे उनवाँ विसाल के से
निगाह ओ दिल को क़रार कैसा नशात ओ ग़म में कमी कहाँ की
वो जब मिले हैं तो उन से हर बार की है उल्फ़त नए सिरे से
बहुत गिराँ है ये ऐश-ए-तन्हा कहीं सुबुक-तर कहीं गवारा
वो दर्द-ए-पिन्हाँ कि सारी दुनिया रफ़ीक़ थी जिस के वास्ते से
तुम्हीं कहो रिंद ओ मोहतसिब में है आज शब कौन फ़र्क़ ऐसा
ये आ के बैठे हैं मय-कदे में वो उठ के आए हैं मय-कदे से