क़ुर्ब-ए-जानाँ का न मय-ख़ाने का मौसम आया
फिर से बे-सर्फ़ा उजड़ जाने का मौसम आया
कुंज-ए-ग़ुर्बत मैं कभी गोशा-ए-ज़िंदाँ में थे हम
जान-ए-जाँ जब भी तिरे आने का मौसम आया
अब लहू रोने की ख़्वाहिश न लहू होने की
दिल-ए-ज़िंदा तिरे मर जाने का मौसम आया
कूचा-ए-यार से हर फ़स्ल में गुज़रे हैं मगर
शायद अब जाँ से गुज़र जाने का मौसम आया
कोई ज़ंजीर कोई हर्फ़-ए-ख़िरद ले आया
फ़स्ल-ए-गुल आई कि दीवाने का मौसम आया
सैल-ए-ख़ूँ शहर की गलियों में दर आया है ‘फ़राज़’
और तू ख़ुश है कि घर जाने का मौसम आया