Nigah-e-naz ka ek war kar ke

निगाह-ए-नाज़ का इक वार कर के छोड़ दिया
दिल-ए-हरीफ़ को बेदार कर के छोड़ दिया

हुई तो है यूँही तरदीद-ए-अहद-ए-लुत्फ़-ओ-करम
दबी ज़बान से इक़रार कर के छोड़ दिया

छुपे कुछ ऐसे कि ता-ज़ीस्त फिर न आए नज़र
रहीन-ए-हसरत-ए-दीदार कर के छोड़ दिया

मुझे तो क़ैद-ए-मोहब्बत अज़ीज़ थी लेकिन
किसी ने मुझ को गिरफ़्तार कर के छोड़ दिया

नज़र को जुरअत-ए-तकमील-ए-बंदगी न हुई
तवाफ़-ए-कूच-ए-दिल-दार कर के छोड़ दिया

ख़ुशा वो कशमकश-ए-रब्त-ए-बाहमी जिस ने
दिल ओ दिमाग़ को बे-कार कर के छोड़ दिया

ज़हे-नसीब कि दुनिया ने तेरे ग़म ने मुझे
मसर्रतों का तलबगार कर के छोड़ दिया

करम की आस में अब किस के दर पे जाए ‘शकील’
जब आप ही ने गुनहगार कर के छोड़ दिया