दश्त में प्यास बुझाते हुए मर जाते हैं
हम परिंदे कहीं जाते हुए मर जाते हैं
हम हैं सूखे हुए तालाब पे बैठे हुए हँस
जो तअ’ल्लुक़ को निभाते हुए मर जाते हैं
घर पहुँचता है कोई और हमारे जैसा
हम तिरे शहर से जाते हुए मर जाते हैं
किस तरह लोग चले जाते हैं उठ कर चुप-चाप
हम तो ये ध्यान में लाते हुए मर जाते हैं
उन के भी क़त्ल का इल्ज़ाम हमारे सर है
जो हमें ज़हर पिलाते हुए मर जाते हैं
ये मोहब्बत की कहानी नहीं मरती लेकिन
लोग किरदार निभाते हुए मर जाते हैं
हम हैं वो टूटी हुई कश्तियों वाले ‘ताबिश’
जो किनारों को मिलाते हुए मर जाते हैं