किसी को नाज़-ए-ख़िरद है किसी को फ़ख़्र-ए-जुनूँ
मैं अपने दिल का फ़साना कहूँ तो किस से कहूँ
न इज़्तिराब में लज़्ज़त न आरज़ू-ए-सुकूँ
कोई कहे कि मैं अब क्या फ़रेब खा के जियूँ
रहेगी फिर न ये कैफ़िय्यत-ए-तलब ऐ दिल
छुपे हुए हैं तो है इश्तियाक़-ए-दीद फ़ुज़ूँ
है आज दिल पे गुमाँ हुस्न-ए-ना-शनासी का
जला चुके जब उसे जल्वा-हा-ए-गूना-गूँ
हो अब भी फ़िक्र में मुश्किल तो याद आते हैं
वो हर अदा में तग़ज़्ज़ुल के सैकड़ों मज़मूँ
तुम ऐसे कौन ख़ुदा हो कि उम्र भर तुम से
उमीद भी न रखूँ ना-उमीद भी न रहूँ