न हासिल हुआ सब्र-ओ-आराम दिल का
न निकला कभी तुम से कुछ काम दिल का
मोहब्बत का नश्शा रहे क्यूँ न हर-दम
भरा है मय-ए-इश्क़ से जाम दिल का
फँसाया तो आँखों ने दाम-ए-बला में
मगर इश्क़ में हो गया नाम दिल का
हुआ ख़्वाब रुस्वा ये इश्क़-ए-बुताँ में
ख़ुदा ही है अब मेरे बदनाम दिल का
ये बाँकी अदाएँ ये तिरछी निगाहें
यही ले गईं सब्र-ओ-आराम दिल का
धुआँ पहले उठता था आग़ाज़ था वो
हुआ ख़ाक अब ये है अंजाम दिल का
जब आग़ाज़-ए-उल्फ़त ही में जल रहा है
तो क्या ख़ाक बतलाऊँ अंजाम दिल का
ख़ुदा के लिए फेर दो मुझ को साहब
जो सरकार में कुछ न हो काम दिल का
पस-ए-मर्ग उन पर खुला हाल-ए-उल्फ़त
गई ले के रूह अपनी पैग़ाम दिल का
तड़पता हुआ यूँ न पाया हमेशा
कहूँ क्या मैं आग़ाज़-ओ-अंजाम दिल का
दिल उस बे-वफ़ा को जो देते हो ‘अकबर’
तो कुछ सोच लो पहले अंजाम दिल का