याद कर वो दिन कि तेरा कोई सौदाई न था
बावजूद-ए-हुस्न तू आगाह-ए-रानाई न था
इश्क़-ए-रोज़-अफ़्ज़ूँ पे अपने मुझ को हैरानी न थी
जल्वा-ए-रंगीं पे तुझ को नाज़-ए-यकताई न था
दीद के क़ाबिल थी मेरे इश्क़ की भी सादगी
जबकि तेरा हुस्न सरगर्म-ए-ख़ुद-आराई न था
क्या हुए वो दिन कि महव-ए-आरज़ू थे हुस्न ओ इश्क़
रब्त था दोनों में गो रब्त-ए-शनासाई न था
तू ने ‘हसरत’ की अयाँ तहज़ीब-ए-रस्म-ए-आशिक़ी
इस से पहले ए’तिबार-ए-शान-ए-रुस्वाई न था