मय-कदा था चाँदनी थी मैं न था
इक मुजस्सम बे-ख़ुदी थी मैं न था
इश्क़ जब दम तोड़ता था तुम न थे
मौत जब सर धुन रही थी मैं न था
तूर पर छेड़ा था जिस ने आप को
वो मिरी दीवानगी थी मैं न था
वो हसीं बैठा था जब मेरे क़रीब
लज़्ज़त-हम-सायगी थी मैं न था
मय-कदे के मोड़ पर रुकती हुई
मुद्दतों की तिश्नगी थी मैं न था
थी हक़ीक़त कुछ मिरी तो इस क़दर
उस हसीं की दिल-लगी थी मैं न था
मैं और उस ग़ुंचा-दहन की आरज़ू
आरज़ू की सादगी थी मैं न था
जिस ने मह-पारों के दिल पिघला दिए
वो तो मेरी शाएरी थी मैं न था
गेसुओं के साए में आराम-कश
सर-बरहना ज़िंदगी थी मैं न था
दैर ओ काबा में ‘अदम’ हैरत-फ़रोश
दो-जहाँ की बद-ज़नी थी मैं न था