दर्द की शाख़ पे इक ताज़ा समर आ गया है
किस की आमद है ‘ज़िया’ कौन नज़र आ गया है
जाने किस जुर्म की पाई है सज़ा पैरों ने
इक सफ़र ख़त्म पे है अगला सफ़र आ गया है
लहर ख़ुद पर है पशेमान कि उस की ज़द में
नन्हे हाथों से बना रेत का घर आ गया है
दर्द भी सहना तबस्सुम भी लबों पर रखना
मर्हबा इश्क़ हमें भी ये हुनर आ गया है
आ गया उस की बुज़ुर्गी का ख़याल आँधी को
वे जो इक राह में बोसीदा शजर आ गया है
उस की आँखों में नहीं पहली सी चाहत लेकिन
ये भी क्या कम है कि वे लौट के घर आ गया है
अपनी महरूमी पे होने ही लगा था मायूस
देखता क्या हूँ दुआओं में असर आ गया है
ज़िंदगी रोक के अक्सर यही कहती है मुझे
तुझ को जाना था किधर और किधर आ गया है
हक़ परस्तों के लिए सब्र का लम्हा है ‘ज़िया’
झूट के नेज़े पे सच्चाई का सर आ गया है