अंजाम-ए-मोहब्बत से मैं बेगाना नहीं हूँ
दीवाना बना फिरता हूँ दीवाना नहीं हूँ
दम भर में जो हो ख़त्म वो अफ़्साना नहीं हूँ
इंसान हूँ इंसान मैं परवाना नहीं हूँ
साक़ी तिरी आँखों को सलामत रक्खे अल्लाह
अब तक तो मैं शर्मिंदा-ए-पैमाना नहीं हूँ
हो बार न ख़ातिर पे तो नासेह कहूँ इक बात
समझा लें जिसे आप वो दीवाना नहीं हूँ
बर्बादियों का ग़म नहीं ग़म है तो ये ग़म है
मिट कर भी मैं ख़ाक-ए-दर-ए-जानाना नहीं हूँ
तौबा तिरे दामन पे जुनूँ-ख़ेज़ निगाहें
हूँ तो मगर अब इतना भी दीवाना नहीं हूँ
सब कुछ मिरे साक़ी ने दिया है मुझे ‘मंज़र’
मोहताज-ए-मय-ओ-शीशा-ओ-पैमाना नहीं हूँ