आज फिर रूह में इक बर्क़ सी लहराती है
दिल की गहराई से रोने की सदा आती है
यूँ चटकती हैं ख़राबात में जैसे कलियाँ
तिश्नगी साग़र-ए-लबरेज़ से टकराती है
शोला-ए-ग़म की लपक और मिरा नाज़ुक सा मिज़ाज
मुझ को फ़ितरत के रवय्ये पे हँसी आती है
मौत इक अम्र-ए-मुसल्लम है तो फिर ऐ साक़ी
रूह क्यूँ ज़ीस्त के आलाम से घबराती है
सो भी जा ऐ दिल-ए-मजरूह बहुत रात गई
अब तो रह रह के सितारों को भी नींद आती है
और तो दिल को नहीं है कोई तकलीफ़ ‘अदम’
हाँ ज़रा नब्ज़ किसी वक़्त ठहर जाती है