Allama Iqbal Shayari अलामा मुहम्मद इकबाल को सरकारी स्कूल लाहौर में उनके दर्शन शिक्षक सर थॉमस अर्नाल्ड के सबक से प्रभावित किया गया था। अर्नोल्ड के सबक ने इकबाल को पश्चिम में उन्नत शिक्षा की तलाश करने का फैसला किया, और 1905 में, वह उस कारण से इंग्लैंड गए।

न हो तुग़्यान-ए-मुश्ताक़ी तो मैं रहता नहीं बाक़ी
कि मेरी ज़िंदगी क्या है यही तुग़्यान-ए-मुश्ताक़ी

मुझे फ़ितरत नवा पर पय-ब-पय मजबूर करती है
अभी महफ़िल में है शायद कोई दर्द-आश्ना बाक़ी

allama-iqbal

वो आतिश आज भी तेरा नशेमन फूँक सकती है
तलब सादिक़ न हो तेरी तो फिर क्या शिकवा-ए-साक़ी

न कर अफ़रंग का अंदाज़ा उस की ताबनाकी से
कि बिजली के चराग़ों से है इस जौहर की बर्राक़ी

तराना-ए-मिल्ली (उर्दू: ترانل ملی) या समुदाय का गान एक उत्साही कविता है Allama Iqbal Shayari जिसमें अल्लामा मोहम्मद इकबाल ने मुस्लिम उम्माह (इस्लामिक राष्ट्रों) को श्रद्धांजलि दी और कहा कि इस्लाम में राष्ट्रवाद का समर्थन नहीं किया गया है।

दिलों में वलवले आफ़ाक़-गीरी के नहीं उठते
निगाहों में अगर पैदा न हो अंदाज़-ए-आफ़ाक़ी

ख़िज़ाँ में भी कब आ सकता था मैं सय्याद की ज़द में
मिरी ग़म्माज़ थी शाख़-ए-नशेमन की कम औराक़ी

उलट जाएँगी तदबीरें बदल जाएँगी तक़दीरें
हक़ीक़त है नहीं मेरे तख़य्युल की है ख़ल्लाक़ी