wahi hota hai jo manjor-e-khuda hota hai

ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है
वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है

नहीं बचता नहीं बचता नहीं बचता आशिक़
पूछते क्या हो शब-ए-हिज्र में क्या होता है

बे-असर नाले नहीं आप का डर है मुझ को
अभी कह दीजिए फिर देखिए क्या होता है

क्यूँ न तश्बीह उसे ज़ुल्फ़ से दें आशिक़-ए-ज़ार
वाक़ई तूल-ए-शब-ए-हिज्र बला होता है

यूँ तकब्बुर न करो हम भी हैं बंदे उस के
सज्दे बुत करते हैं हामी जो ख़ुदा होता है

‘बर्क़’ उफ़्तादा वो हूँ सल्तनत-ए-आलम में
ताज-ए-सर इज्ज़ से नक़्श-ए-कफ़-ए-पा होता है

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Khushiya manao sarkaar aa gaye

जिंदगी अपनी यू खुशनुमा कीजिए
जिक्रे अहमद हमेशा किया कीजिए

दर्स हमको मिला ये नबी पाक से
दुश्मनों के भी हक में दुआ कीजिए

कामयाबी की कुंजी अगर चाहिए
सरवरे दीन से राब्ता कीजिए

वह सफायत करेंगे यकीनन मगर
आप पाबंदे सुन्नत रहा कीजिए

लज़्ज्ते ज़िक्र का फिर मजा आएगा
पहले दिल को बलाली बना लीजिए

हर बला सर से चलती रहेगी सदा
सानी सजदा खुशी से दिया कीजिए

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Zindagi jab imtehan leti hai

ज़िंदगी जब भी तिरी बज़्म में लाती है हमें
ये ज़मीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें

सुर्ख़ फूलों से महक उठती हैं दिल की राहें
दिन ढले यूँ तिरी आवाज़ बुलाती है हमें

याद तेरी कभी दस्तक कभी सरगोशी से
रात के पिछले-पहर रोज़ जगाती है हमें

हर मुलाक़ात का अंजाम जुदाई क्यूँ है
अब तो हर वक़्त यही बात सताती है हमें

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main jo safar se guzra

मैं जो गुज़रा सलाम करने लगा
पेड़ मुझ से कलाम करने लगा

देख ऐ नौ-जवान मैं तुझ पर
अपनी चाहत तमाम करने लगा

क्यूँ किसी शब चराग़ की ख़ातिर
अपनी नींदें हराम करने लगा

सोचता हूँ दयार-ए-बे-परवा
क्यूँ मिरा एहतिराम करने लगा

उम्र-ए-यक-रोज़ कम नहीं ‘सरवत’
क्यूँ तलाश-ए-दवाम करने लगा

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Dil ko kya ho gya

दिल को क्या हो गया ख़ुदा जाने
क्यूँ है ऐसा उदास क्या जाने

अपने ग़म में भी उस को सरफ़ा है
न खिला जाने वो न खा जाने

इस तजाहुल का क्या ठिकाना है
जान कर जो न मुद्दआ’ जाने

कह दिया मैं ने राज़-ए-दिल अपना
उस को तुम जानो या ख़ुदा जाने

क्या ग़रज़ क्यूँ इधर तवज्जोह हो
हाल-ए-दिल आप की बला जाने

जानते जानते ही जानेगा
मुझ में क्या है अभी वो क्या जाने

क्या हम उस बद-गुमाँ से बात करें
जो सताइश को भी गिला जाने

तुम न पाओगे सादा-दिल मुझ सा
जो तग़ाफ़ुल को भी हया जाने

है अबस जुर्म-ए-इश्क़ पर इल्ज़ाम
जब ख़ता-वार भी ख़ता जाने

नहीं कोताह दामन-ए-उम्मीद
आगे अब दस्त-ए-ना-रसा जाने

जो हो अच्छा हज़ार अच्छों का
वाइ’ज़ उस बुत को तू बुरा जाने

की मिरी क़द्र मिस्ल-ए-शाह-ए-दकन
किसी नव्वाब ने न राजा ने

उस से उट्ठेगी क्या मुसीबत-ए-इश्क़
इब्तिदा को जो इंतिहा जाने

‘दाग़’ से कह दो अब न घबराओ
काम अपना बता हुआ जाने

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meri umeed ka suraj hai tu

तमाम रंग जहाँ इल्तिजा के रक्खे थे
लहू लहू वहीं मंज़र अना के रक्खे थे

करम के साथ सितम भी बला के रक्खे थे
हर एक फूल ने काँटे छुपा के रक्खे थे

सुकून चेहरे पे हर ख़ुश अदा के रक्खे थे
समुंदरों ने भी तेवर छुपा के रक्खे थे

मिरी उम्मीद का सूरज कि तेरी आस का चाँद
दिए तमाम ही रुख़ पर हवा के रक्खे थे

वो जिस की पाक उड़ानों के मो’तरिफ़ थे सब
जले हुए वही शहपर हया के रक्खे थे

बना यज़ीद ज़माना जो मैं हुसैन बना
कि ज़ुल्म बाक़ी अभी कर्बला के रक्खे थे

उन्हीं को तोड़ गया है ख़ुलूस का चेहरा
जो चंद आइने हम ने बचा के रक्खे थे

यूँही किसी की कोई बंदगी नहीं करता
बुतों के चेहरों पे तेवर ख़ुदा के रक्खे थे

गए हैं बाब-ए-रसा तक वो दस्तकें बन कर
‘ज़फ़र’ जो हाथ पे आँसू दुआ के रक्खे थे

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baag Shayari

पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है

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