mohabbat ke liye kuch dil khas hote hain

दुई का तज़्किरा तौहीद में पाया नहीं जाता
जहाँ मेरी रसाई है मिरा साया नहीं जाता

मिरे टूटे हुए पा-ए-तलब का मुझ पे एहसाँ है
तुम्हारे दर से उठ कर अब कहीं जाया नहीं जाता

मोहब्बत हो तो जाती है मोहब्बत की नहीं जाती
ये शोअ’ला ख़ुद भड़क उठता है भड़काया नहीं जाता

फ़क़ीरी में भी मुझ को माँगने से शर्म आती है
सवाली हो के मुझ से हाथ फैलाता नहीं जाता

चमन तुम से इबारत है बहारें तुम से ज़िंदा हैं
तुम्हारे सामने फूलों से मुरझाया नहीं जाता

मोहब्बत के लिए कुछ ख़ास दिल मख़्सूस होते हैं
ये वो नग़्मा है जो हर साज़ पर गाया नहीं जाता

मोहब्बत अस्ल में ‘मख़मूर’ वो राज़-ए-हक़ीक़त है
समझ में आ गया है फिर भी समझाया नहीं जाता

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gila shiba kaha rahta hain

गिला-शिकवा कहाँ रहता है दिल हम-साज़ होता है
मोहब्बत में तो हर इक जुर्म नज़र-अंदाज़ होता है

लबों पर क़ुफ़्ल आँखों में लिहाज़-ए-नाज़ होता है
मोहब्बत करने वालों का अजब अंदाज़ होता है

इशारे काम करते हैं मोहब्बत में निगाहों के
निगाहों से ही बाहम इंकिशाफ़-ए-राज़ होता है

गुज़रती है जो उस पर सब गवारा करता है ख़ुश ख़ुश
जफ़ाओं से तुम्हारी दिल कहाँ नाराज़ होता है

हर इक से हम तो बे-शक करते हैं तल्क़ीन उल्फ़त की
बड़ा तक़दीर वाला ही कोई हम-साज़ होता है

सुकून-ए-क़ल्ब हासिल है परेशाँ मैं नहीं दिलबर
जो तुम से दूर होता है वही ना-साज़ होता है

मैं हूँ शाकी ओ नाज़ाँ तो फ़क़त इस रस्म-ए-दुनिया से
वही ग़म्माज़ हो जाता है जो हमराज़ होता है

नहीं है गर ये दुनिया भी हक़ीक़त से ही वाबस्ता
तो क्यूँ दिल इस की जानिब माइल-ए-परवाज़ होता है

बड़ी तब्दीलियाँ होती हैं उल्फ़त उन से होने पर
ज़मीर-ए-ख़ुद-ग़र्ज़ का साज़-ए-बे-आवाज़ होता है

समझते हैं हमीं हैं हुक्मराँ इस सारे आलम के
नज़र में जब हमारी वो हसीं अंदाज़ होता है

नज़र आता है हर सू जलवा-ए-अनवर में ग़र्क़ आलम
दिल-ए-पुर-कैफ़ बेहिस दर-हक़ीक़त बाज़ होता है

जुदा-गाना मगर अंदाज़ होता है हर आशिक़ का
मचाता है कोई ग़ुल कोई बे-आवाज़ होता है

सफ़र मंज़िल-ब-मंज़िल तय किया जाता है उल्फ़त का
बड़ी मुद्दत में सर वो बारगाह-ए-नाज़ होता है

वही है कामराँ आशिक़ जो उस को पार कर जाए
दिलों के दरमियाँ जो इक जहान-ए-राज़ होता है

बढ़ा और उन से वाक़िफ़ हो कि आज़ार-ए-ग़म-ए-फ़ुर्कत
दुई के फ़र्श का एहसास बे-अंदाज़ होता है

तनासुख़ है मुसलसल इब्तिदा-ए-आफ़रीनश में
हयात-ए-जावेदाँ में कौन दख़्ल-अंदाज़ होता है

न हम-पेशा न हम-ख़ाना न हम-पियाला न हम-बिस्तर
वही अपना है ‘रहबर’ जो भी हम-आवाज़ होता है

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humne kis din tere khuche

हम ने किस दिन तिरे कूचे में गुज़ारा न किया
तू ने ऐ शोख़ मगर काम हमारा न किया

एक ही बार हुईं वजह-ए-गिरफ़्तारी-ए-दिल
इल्तिफ़ात उन की निगाहों ने दोबारा न किया

महफ़िल-ए-यार की रह जाएगी आधी रौनक़
नाज़ को उस ने अगर अंजुमन-आरा न किया

तान-ए-अहबाब सुने सरज़निश-ए-ख़ल्क़ सही
हम ने क्या क्या तिरी ख़ातिर से गवारा न किया

जब दिया तुम ने रक़ीबों को दिया जाम-ए-शराब
भूल कर भी मिरी जानिब को इशारा न किया

रू-ब-रू चश्म-ए-तसव्वुर के वो हर वक़्त रहे
न सही आँख ने गर उन का नज़ारा न किया

गर यही है सितम-ए-यार तो हम ने ‘हसरत’
न किया कुछ भी जो दुनिया से किनारा न किया

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hazrat ali ne farmaya

ज़िल्लत उठाने से बेहतर है तकलीफ उठाओ .

कभी भी अपनी जिस्मानी ताकत और दौलत पर भरोसा न करना क्युँकि बीमारी और ग़रीबी आने में देर नही लगती…!!

“इंसान की ज़ुबान उसकी अक्ल का पता देती है और आदमी अपनी ज़ुबान के नीचे छुपा होता है !!”

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hazrat ali

बुरी औरत की पहचान

अपने आप को ढांप कर नहीं रखेगी।

अपने खाविंद की नफरमानी करेगी।

बदजुबान होगी।

बालों की नुमाईश करेगी।

खानदान भर में अपने आपको आकिल ख्याल करेगी।

दुसरों को बात न करने देगी

नींद उसे बहुत अजीज होगी।

अपनी आवाज को बहुत बुलंद करके बात करेगी।

कपड़े बारीक और दिखावे वाले पहनेंगी।

पीठ पिछे अपने खानदान की बुराई करेगी।

बाजारों के चक्कर लगाने की शौकीन होगी
-हजरत अली

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