इश्क़ का ज़ौक़-ए-नज़ारा मुफ़्त में बदनाम है
हुस्न ख़ुद बे-ताब है जल्वा दिखाने के लिए
Ao ab mil ke gulistan ko
आओ अब मिल के गुलिस्ताँ को गुल्सिताँ कर दें
हर गुल-ओ-लाला को रक़्साँ ओ ग़ज़ल-ख़्वाँ कर दें
अक़्ल है फ़ित्ना-ए-बेदार सुला दें इस को
इश्क़ की जिंस-ए-गिराँ-माया को अर्ज़ां कर दें
दस्त-ए-वहशत में ये अपना ही गरेबाँ कब तक
ख़त्म अब सिलसिला-ए-चाक-ए-गरेबाँ कर दें
ख़ून-ए-आदम पे कोई हर्फ़ न आने पाए
जिन्हें इंसाँ नहीं कहते उन्हें इंसाँ कर दें
दामन-ए-ख़ाक पे ये ख़ून के छींटे कब तक
इन्हीं छींटों को बहिश्त-ए-गुल-ओ-रैहाँ कर दें
माह ओ अंजुम भी हों शर्मिंदा-ए-तनवीर ‘मजाज़’
दश्त-ए-ज़ुल्मात में इक ऐसा चराग़ाँ कर दें
Abhi kuch Khalish si Ho rahi hain
अभी तो कुछ ख़लिश सी हो रही है चंद काँटों से
इन्हीं तलवों में इक दिन जज़्ब कर लूँगा बयाबाँ को
kuchh na kuchh ishq ki tasir ka iqrar to hai
कुछ न कुछ इश्क़ की तासीर का इक़रार तो है
उस का इल्ज़ाम-ए-तग़ाफ़ुल पे कुछ इंकार तो है
हर फ़रेब-ए-ग़म-ए-दुनिया से ख़बर-दार तो है
तेरा दीवाना किसी काम में हुश्यार तो है
देख लेते हैं सभी कुछ तिरे मुश्ताक़-ए-जमाल
ख़ैर दीदार न हो हसरत-ए-दीदार तो है
माअ’रके सर हों उसी बर्क़-ए-नज़र से ऐ हुस्न
ये चमकती हुई चलती हुइ तलवार तो है
सर पटकने को पटकता है मगर रुक रुक कर
तेरे वहशी को ख़याल-ए-दर-ओ-दीवार तो है
इश्क़ का शिकवा-ए-बेजा भी न बे-कार गया
न सही जौर मगर जौर का इक़रार तो है
तुझ से हिम्मत तो पड़ी इश्क़ को कुछ कहने की
ख़ैर शिकवा न सही शुक्र का इज़हार तो है
इस में भी राबता-ए-ख़ास की मिलती है झलक
ख़ैर इक़रार-ए-मोहब्बत न हो इंकार तो है
क्यूँ झपक जाती है रह रह के तिरी बर्क़-ए-निगाह
ये झिजक किस लिए इक कुश्ता-ए-दीदार तो है
कई उन्वान हैं मम्नून-ए-करम करने के
इश्क़ में कुछ न सही ज़िंदगी बे-कार तो है
सहर-ओ-शाम सर-ए-अंजुमन-ए-नाज़ न हो
जल्वा-ए-हुस्न तो है इश्क़-ए-सियहकार तो है
चौंक उठते हैं ‘फ़िराक़’ आते ही उस शोख़ का नाम
कुछ सरासीमगी-ए-इश्क़ का इक़रार तो है
Ek Tarq-e-Tagaful
इक तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल है सो वो उन को मुबारक
इक अर्ज़-ए-तमन्ना है सो हम करते रहेंगे
kai bar is ka daman bhar diya
कई बार इस का दामन भर दिया हुस्न-ए-दो-आलम से
मगर दिल है कि इस की ख़ाना-वीरानी नहीं जाती
कई बार इस की ख़ातिर ज़र्रे ज़र्रे का जिगर चेरा
मगर ये चश्म-ए-हैराँ जिस की हैरानी नहीं जाती
नहीं जाती मता-ए-लाल-ओ-गौहर की गिराँ-याबी
मता-ए-ग़ैरत-ओ-ईमाँ की अर्ज़ानी नहीं जाती
मिरी चश्म-ए-तन-आसाँ को बसीरत मिल गई जब से
बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती
सर-ए-खुसरव से नाज़-ए-कज-कुलाही छिन भी जाता है
कुलाह-ए-ख़ुसरवी से बू-ए-सुल्तानी नहीं जाती
ब-जुज़ दीवानगी वाँ और चारा ही कहो क्या है
जहाँ अक़्ल ओ ख़िरद की एक भी मानी नहीं जाती
Ab Tat Dil-e-khush Faham
अब तक दिल-ए-ख़ुश-फ़हम को तुझ से हैं उमीदें
ये आख़िरी शमएँ भी बुझाने के लिए आ
Usne sukut-e-shab mein
उस ने सुकूत-ए-शब में भी अपना पयाम रख दिया
हिज्र की रात बाम पर माह-ए-तमाम रख दिया
आमद-ए-दोस्त की नवेद कू-ए-वफ़ा में आम थी
मैं ने भी इक चराग़ सा दिल सर-ए-शाम रख दिया
शिद्दत-ए-तिश्नगी में भी ग़ैरत-ए-मय-कशी रही
उस ने जो फेर ली नज़र मैं ने भी जाम रख दिया
उस ने नज़र नज़र में ही ऐसे भले सुख़न कहे
मैं ने तो उस के पाँव में सारा कलाम रख दिया
देखो ये मेरे ख़्वाब थे देखो ये मेरे ज़ख़्म हैं
मैं ने तो सब हिसाब-ए-जाँ बर-सर-ए-आम रख दिया
अब के बहार ने भी कीं ऐसी शरारतें कि बस
कब्क-ए-दरी की चाल में तेरा ख़िराम रख दिया
जो भी मिला उसी का दिल हल्क़ा-ब-गोश-ए-यार था
उस ने तो सारे शहर को कर के ग़ुलाम रख दिया
और ‘फ़राज़’ चाहिएँ कितनी मोहब्बतें तुझे
माओं ने तेरे नाम पर बच्चों का नाम रख दिया
Uske Faroge Husn
उस के फ़रोग़-ए-हुस्न से झमके है सब में नूर
शम-ए-हरम हो या हो दिया सोमनात का
Us ka Khiram dekh ke
उस का ख़िराम देख के जाया न जाएगा
ऐ कब्क फिर बहाल भी आया न जाएगा
हम कशतगान-ए-इशक़ हैं अब्रू-ओ-चश्म-ए-यार
सर से हमारे तेग़ का साया न जाएगा
हम रहरवान-ए-राह-ए-फ़ना हैं बिरंग-ए-उम्र
जावेंगे ऐसे खोज भी पाया न जाएगा
फोड़ा सा सारी रात जो पकता रहेगा दिल
तो सुब्ह तक तो हाथ लगाया न जाएगा
अपने शहीद-ए-नाज़ से बस हाथ उठा कि फिर
दीवान-ए-हश्र में उसे लाया न जाएगा
अब देख ले कि सीना भी ताज़ा हुआ है चाक
फिर हम से अपना हाल दिखाया न जाएगा
हम बे-ख़ुद उन महफ़िल-ए-तस्वीर अब गए
आइंदा हम से आप में आया न जाएगा
गो बे-सुतूँ को टाल दे आगे से कोहकन
संग-गरान-ए-इश्क़ उठाया न जाएगा
हम तो गए थे शैख़ को इंसान बूझ कर
पर अब से ख़ानक़ाह में जाया न जाएगा
याद उस की इतनी ख़ूब नहीं ‘मीर’ बाज़ आ
नादान फिर वो जी से भुलाया न जाएगा