Category: Asrarul Haq Majaz
हुस्न फिर फ़ित्नागर है क्या कहिए
दिल की जानिब नज़र है क्या कहिए
फिर वही रहगुज़र है क्या कहिए
ज़िंदगी राह पर है क्या कहिए
हुस्न ख़ुद पर्दा-वर है क्या कहिए
ये हमारी नज़र है क्या कहिए
आह तो बे-असर थी बरसों से
नग़्मा भी बे-असर है क्या कहिए
हुस्न है अब न हुस्न के जल्वे
अब नज़र ही नज़र है क्या कहिए
आज भी है ‘मजाज़’ ख़ाक-नशीं
और नज़र अर्श पर है क्या कहिए
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नहीं ये फ़िक्र कोई रहबर-ए-कामिल नहीं मिलता
कोई दुनिया में मानूस-ए-मिज़ाज-ए-दिल नहीं मिलता
कभी साहिल पे रह कर शौक़ तूफ़ानों से टकराएँ
कभी तूफ़ाँ में रह कर फ़िक्र है साहिल नहीं मिलता
ये आना कोई आना है कि बस रस्मन चले आए
ये मिलना ख़ाक मिलना है कि दिल से दिल नहीं मिलता
शिकस्ता-पा को मुज़्दा ख़स्तगान-ए-राह को मुज़्दा
कि रहबर को सुराग़-ए-जादा-ए-मंज़िल नहीं मिलता
वहाँ कितनों को तख़्त ओ ताज का अरमाँ है क्या कहिए
जहाँ साइल को अक्सर कासा-ए-साइल नहीं मिलता
ये क़त्ल-ए-आम और बे-इज़्न क़त्ल-ए-आम क्या कहिए
ये बिस्मिल कैसे बिस्मिल हैं जिन्हें क़ातिल नहीं मिलता
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आशिक़ी जाँ-फ़ज़ा भी होती है
और सब्र-आज़मा भी होती है
रूह होती है कैफ़-परवर भी
और दर्द-आश्ना भी होती है
हुस्न को कर न दे ये शर्मिंदा
इश्क़ से ये ख़ता भी होती है
बन गई रस्म बादा-ख़्वारी भी
ये नमाज़ अब क़ज़ा भी होती है
जिस को कहते हैं नाला-ए-बरहम
साज़ में वो सदा भी होती है
क्या बता दो ‘मजाज़’ की दुनिया
कुछ हक़ीक़त-नुमा भी होती है
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जिगर और दिल को बचाना भी है
नज़र आप ही से मिलाना भी है
मोहब्बत का हर भेद पाना भी है
मगर अपना दामन बचाना भी है
जो दिल तेरे ग़म का निशाना भी है
क़तील-ए-जफ़ा-ए-ज़माना भी है
ये बिजली चमकती है क्यूँ दम-ब-दम
चमन में कोई आशियाना भी है
ख़िरद की इताअत ज़रूरी सही
यही तो जुनूँ का ज़माना भी है
न दुनिया न उक़्बा कहाँ जाइए
कहीं अहल-ए-दिल का ठिकाना भी है
मुझे आज साहिल पे रोने भी दो
कि तूफ़ान में मुस्कुराना भी है
ज़माने से आगे तो बढ़िए ‘मजाज़’
ज़माने को आगे बढ़ाना भी है
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कमाल-ए-इश्क़ है दीवाना हो गया हूँ मैं
ये किस के हाथ से दामन छुड़ा रहा हूँ मैं
तुम्हीं तो हो जिसे कहती है नाख़ुदा दुनिया
बचा सको तो बचा लो कि डूबता हूँ मैं
ये मेरे इश्क़ की मजबूरियाँ मआज़-अल्लाह
तुम्हारा राज़ तुम्हीं से छुपा रहा हूँ मैं
इस इक हिजाब पे सौ बे-हिजाबियाँ सदक़े
जहाँ से चाहता हूँ तुम को देखता हूँ मैं
बताने वाले वहीं पर बताते हैं मंज़िल
हज़ार बार जहाँ से गुज़र चुका हूँ मैं
कभी ये ज़ोम कि तू मुझ से छुप नहीं सकता
कभी ये वहम कि ख़ुद भी छुपा हुआ हूँ मैं
मुझे सुने न कोई मस्त-ए-बादा-ए-इशरत
‘मजाज़’ टूटे हुए दिल की इक सदा हूँ मैं
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नहीं ये फ़िक्र कोई रहबर-ए-कामिल नहीं मिलता
कोई दुनिया में मानूस-ए-मिज़ाज-ए-दिल नहीं मिलता
कभी साहिल पे रह कर शौक़ तूफ़ानों से टकराएँ
कभी तूफ़ाँ में रह कर फ़िक्र है साहिल नहीं मिलता
ये आना कोई आना है कि बस रस्मन चले आए
ये मिलना ख़ाक मिलना है कि दिल से दिल नहीं मिलता
शिकस्ता-पा को मुज़्दा ख़स्तगान-ए-राह को मुज़्दा
कि रहबर को सुराग़-ए-जादा-ए-मंज़िल नहीं मिलता
वहाँ कितनों को तख़्त ओ ताज का अरमाँ है क्या कहिए
जहाँ साइल को अक्सर कासा-ए-साइल नहीं मिलता
ये क़त्ल-ए-आम और बे-इज़्न क़त्ल-ए-आम क्या कहिए
ये बिस्मिल कैसे बिस्मिल हैं जिन्हें क़ातिल नहीं मिलता
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आओ अब मिल के गुलिस्ताँ को गुल्सिताँ कर दें
हर गुल-ओ-लाला को रक़्साँ ओ ग़ज़ल-ख़्वाँ कर दें
अक़्ल है फ़ित्ना-ए-बेदार सुला दें इस को
इश्क़ की जिंस-ए-गिराँ-माया को अर्ज़ां कर दें
दस्त-ए-वहशत में ये अपना ही गरेबाँ कब तक
ख़त्म अब सिलसिला-ए-चाक-ए-गरेबाँ कर दें
ख़ून-ए-आदम पे कोई हर्फ़ न आने पाए
जिन्हें इंसाँ नहीं कहते उन्हें इंसाँ कर दें
दामन-ए-ख़ाक पे ये ख़ून के छींटे कब तक
इन्हीं छींटों को बहिश्त-ए-गुल-ओ-रैहाँ कर दें
माह ओ अंजुम भी हों शर्मिंदा-ए-तनवीर ‘मजाज़’
दश्त-ए-ज़ुल्मात में इक ऐसा चराग़ाँ कर दें
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