haqikat gum hai kya

हक़ीक़त-ए-ग़म-ए-उल्फ़त छुपा रहा हूँ मैं
शिकस्ता-दिल हूँ मगर मुस्कुरा रहा हूँ मैं

कमाल-ए-हौसला-ए-दिल दिखा रहा हूँ मैं
किसी से रस्म-ए-मोहब्बत बढ़ा रहा हूँ मैं

बदल दिया है मोहब्बत ने उन का तर्ज़-ए-अमल
अब उन में शान-ए-तकल्लुफ़ सी पा रहा हूँ मैं

मचल मचल के मैं कहता हूँ बैठिए तो सही
सँभल सँभल के वो कहते हैं जा रहा हूँ मैं

सुनी हुई सी बस इक धुन ज़रूर है लेकिन
ये ख़ुद ख़बर नहीं क्या गुनगुना रहा हूँ मैं

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dil markaz-e-hijab banaya

दिल मरकज़-ए-हिजाब बनाया न जाएगा
उन से भी राज़-ए-इश्क़ छुपाया न जाएगा

सर को कभी क़दम पे झुकाया न जाएगा
उन के नुक़ूश-ए-पा को मिटाया न जाएगा

बे-वज्ह इंतिज़ार दिखाने से फ़ाएदा
कह दीजिए कि सामने आया न जाएगा

आँखों में अश्क क़ल्ब परेशाँ नज़र उदास
इस तरह उन को छोड़ के जाया न जाएगा

वो ख़ुद कहें तो शरह-ए-मोहब्बत बयाँ करूँ
नग़्मा बग़ैर साज़ सुनाया न जाएगा

बेहतर यही है ज़िक्र-ए-मोहब्बत न छेड़िए
नक़्शा बिगड़ गया तो बनाया न जाएगा

दिल की तरफ़ ‘शकील’ तवज्जोह ज़रूर हो
ये घर उजड़ गया तो बसाया न जाएगा

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chandi me rokhe jeva tera

चाँदनी में रुख़-ए-ज़ेबा नहीं देखा जाता
माह ओ ख़ुर्शीद को यकजा नहीं देखा जाता

यूँ तो उन आँखों से क्या क्या नहीं देखा जाता
हाँ मगर अपना ही जल्वा नहीं देखा जाता

दीदा-ओ-दिल की तबाही मुझे मंज़ूर मगर
उन का उतरा हुआ चेहरा नहीं देखा जाता

ज़ब्त-ए-ग़म हाँ वही अश्कों का तलातुम इक बार
अब तो सूखा हुआ दरिया नहीं देखा जाता

ज़िंदगी आ तुझे क़ातिल के हवाले कर दूँ
मुझ से अब ख़ून-ए-तमन्ना नहीं देखा जाता

अब तो झूटी भी तसल्ली ब-सर-ओ-चश्म क़ुबूल
दिल का रह रह के तड़पना नहीं देखा जाता

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teri anjuman me ye dekha

तिरी अंजुमन में ज़ालिम अजब एहतिमाम देखा
कहीं ज़िंदगी की बारिश कहीं क़त्ल-ए-आम देखा

मेरी अर्ज़-ए-शौक़ पढ़ लें ये कहाँ उन्हें गवारा
वहीं चाक कर दिया ख़त जहाँ मेरा नाम देखा

बड़ी मिन्नतों से आ कर वो मुझे मना रहे हैं
मैं बचा रहा हूँ दामन मिरा इंतिक़ाम देखा

ऐ ‘शकील’ रूह-परवर तिरी बे-ख़ुदी के नग़्मे
मगर आज तक न हम ने तिरे लब पे जाम देखा

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kaise kahdo mulakaat nhi hoti

कैसे कह दूँ की मुलाक़ात नहीं होती है
रोज़ मिलते हैं मगर बात नहीं होती है

आप लिल्लाह न देखा करें आईना कभी
दिल का आ जाना बड़ी बात नहीं होती है

छुप के रोता हूँ तिरी याद में दुनिया भर से
कब मिरी आँख से बरसात नहीं होती है

हाल-ए-दिल पूछने वाले तिरी दुनिया में कभी
दिन तो होता है मगर रात नहीं होती है

जब भी मिलते हैं तो कहते हैं कि कैसे हो ‘शकील’
इस से आगे तो कोई बात नहीं होती है

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ye mohabbat tere anjaam pe rona aaya

ऐ मोहब्बत तिरे अंजाम पे रोना आया
जाने क्यूँ आज तिरे नाम पे रोना आया

यूँ तो हर शाम उमीदों में गुज़र जाती है
आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया

कभी तक़दीर का मातम कभी दुनिया का गिला
मंज़िल-ए-इश्क़ में हर गाम पे रोना आया

मुझ पे ही ख़त्म हुआ सिलसिला-ए-नौहागरी
इस क़दर गर्दिश-ए-अय्याम पे रोना आया

जब हुआ ज़िक्र ज़माने में मोहब्बत का ‘शकील’
मुझ को अपने दिल-ए-नाकाम पे रोना आया

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Hangama-e-gham se tang aa kar izhaar-e-masarrat

हंगामा-ए-ग़म से तंग आ कर इज़हार-ए-मसर्रत कर बैठे
मशहूर थी अपनी ज़िंदा-दिली दानिस्ता शरारत कर बैठे

कोशिश तो बहुत की हम ने मगर पाया न ग़म-ए-हस्ती से मफ़र
वीरानी-ए-दिल जब हद से बढ़ी घबरा के मोहब्बत कर बैठे

हस्ती के तलातुम में पिन्हाँ थे ऐश ओ तरब के धारे भी
अफ़्सोस हमी से भूल हुई अश्कों पे क़नाअत कर बैठे

ज़िंदान-ए-जहाँ से ये नफ़रत ऐ हज़रत-ए-वाइज़ क्या कहना
अल्लाह के आगे बस न चला बंदों से बग़ावत कर बैठे

गुलचीं ने तो कोशिश कर डाली सूनी हो चमन की हर डाली
काँटों ने मुबारक काम किया फूलों की हिफ़ाज़त कर बैठे

हर चीज़ नहीं है मरकज़ पर इक ज़र्रा इधर इक ज़र्रा उधर
नफ़रत से न देखो दुश्मन को शायद वो मोहब्बत कर बैठे

अल्लाह तो सब की सुनता है जुरअत है ‘शकील’ अपनी अपनी
‘हाली’ ने ज़बाँ से उफ़ भी न की ‘इक़बाल’ शिकायत कर बैठे

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Nigah-e-naz ka ek war kar ke

निगाह-ए-नाज़ का इक वार कर के छोड़ दिया
दिल-ए-हरीफ़ को बेदार कर के छोड़ दिया

हुई तो है यूँही तरदीद-ए-अहद-ए-लुत्फ़-ओ-करम
दबी ज़बान से इक़रार कर के छोड़ दिया

छुपे कुछ ऐसे कि ता-ज़ीस्त फिर न आए नज़र
रहीन-ए-हसरत-ए-दीदार कर के छोड़ दिया

मुझे तो क़ैद-ए-मोहब्बत अज़ीज़ थी लेकिन
किसी ने मुझ को गिरफ़्तार कर के छोड़ दिया

नज़र को जुरअत-ए-तकमील-ए-बंदगी न हुई
तवाफ़-ए-कूच-ए-दिल-दार कर के छोड़ दिया

ख़ुशा वो कशमकश-ए-रब्त-ए-बाहमी जिस ने
दिल ओ दिमाग़ को बे-कार कर के छोड़ दिया

ज़हे-नसीब कि दुनिया ने तेरे ग़म ने मुझे
मसर्रतों का तलबगार कर के छोड़ दिया

करम की आस में अब किस के दर पे जाए ‘शकील’
जब आप ही ने गुनहगार कर के छोड़ दिया

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kisi ko jab nigahon ke muqabil

किसी को जब निगाहों के मुक़ाबिल देख लेता हूँ
तो पहले सर झुका के हालत-ए-दिल देख लेता हूँ

मआल-ए-जुस्तुजू-ए-शौक़-ए-कामिल देख लेता हूँ
उठाते ही क़दम आसार-ए-मंज़िल देख लेता हूँ

मैं तुझ से और लुत्फ़-ए-ख़ास का तालिब मआ’ज़-अल्लाह
सितम-गर इस बहाने से तिरा दिल देख लेता हूँ

जो मौजें ख़ास कर चश्म-ओ-चराग़-ए-दाम-ए-तूफ़ाँ हैं
मैं उन मौजों को हम-आग़ोश-ए-साहिल देख लेता हूँ

‘शकील’ एहसास है मुझ को हर इक मौज़ूँ तबीअ’त का
ग़ज़ल पढ़ने से पहले रंग-ए-महफ़िल देख लेता हूँ

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Ab tak shikayaten hain

अब तक शिकायतें हैं दिल-ए-बद-नसीब से
इक दिन किसी को देख लिया था क़रीब से

अक्सर ब-ज़ोम-ए-तर्क-ए-मोहब्बत ख़ुदा गवाह
गुज़रा चला गया हूँ दयार-ए-हबीब से

दस्त-ए-ख़िज़ाँ ने बढ़ के वहीं उस को चुन लिया
जो फूल गिर गया निगह-ए-अंदलीब से

अहल-ए-सुकूँ से खेल न ऐ मौज-ए-इम्बिसात
इक दिन उलझ के देख किसी ग़म-नसीब से

न अहल-ए-नाज़ को भी मिले फ़ुर्सत-ए-नियाज़
मैं दूर हट गया जो वो गुज़रे क़रीब से

ये किस ख़ता पे रूठ गई चश्म-ए-इल्तिफ़ात
ये कब का इंतिक़ाम लिया मुझ ग़रीब से

उन के बग़ैर भी है वही ज़िंदगी का दौर
हालात-ए-ज़िंदगी हैं मगर कुछ अजीब से

समझे हुए थे हुस्न-ए-अज़ल जिस को हम ‘शकील’
अपना ही अक्स-ए-रुख़ नज़र आया क़रीब से

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