बयान-ए-दर्द-ए-मोहब्बत जो बार बार न हो
कोई नक़ाब तिरे रुख़ की पर्दा-दार न हो
सलाम-ए-शौक़ की जुरअत से दिल लरज़ता है
कहीं मिज़ाज गिरामी पे ये भी बार न हो
करम पे आएँ तो हर हर अदा में इश्क़ ही इश्क़
न हो तो उन का तग़ाफ़ुल भी आश्कार न हो
यही ख़याल रहा पत्थरों की बारिश में
कहीं उन्हीं में कोई संग-ए-कू-ए-यार न हो
अभी है आस कि आख़िर कभी तो आएगा
वो एक लम्हा कि जब तेरा इंतिज़ार न हो
बहुत फ़रेब समझता हूँ फिर भी ऐ ‘आली’
मैं क्या करूँ अगर उन पर भी ए’तिबार न हो