देखा जो हुस्न-ए-यार तबीअत मचल गई
आँखों का था क़ुसूर छुरी दिल पे चल गई
हम तुम मिले न थे तो जुदाई का था मलाल
अब ये मलाल है कि तमन्ना निकल गई
साक़ी तिरी शराब जो शीशे में थी पड़ी
साग़र में आ के और भी साँचे में ढल गई
दुश्मन से फिर गई निगह-ए-यार शुक्र है
इक फाँस थी कि दिल से हमारे निकल गई
पीने से कर चुका था मैं तौबा मगर ‘जलील’
बादल का रंग देख के नीयत बदल गई