mohabbat na samajh hoti hai

मोहब्बत ना-समझ होती है समझाना ज़रूरी है
जो दिल में है उसे आँखों से कहलाना ज़रूरी है

उसूलों पर जहाँ आँच आए टकराना ज़रूरी है
जो ज़िंदा हो तो फिर ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है

नई उम्रों की ख़ुद-मुख़्तारियों को कौन समझाए
कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है

थके-हारे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटें
सलीक़ा-मंद शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है

बहुत बेबाक आँखों में तअ’ल्लुक़ टिक नहीं पाता
मोहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है

सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है

मिरे होंटों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो
कि इस के बा’द भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है

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dukh apna hame batana nhi aata

दुख अपना अगर हम को बताना नहीं आता
तुम को भी तो अंदाज़ा लगाना नहीं आता

पहुँचा है बुज़ुर्गों के बयानों से जो हम तक
क्या बात हुई क्यूँ वो ज़माना नहीं आता

मैं भी उसे खोने का हुनर सीख न पाया
उस को भी मुझे छोड़ के जाना नहीं आता

इस छोटे ज़माने के बड़े कैसे बनोगे
लोगों को जब आपस में लड़ाना नहीं आता

ढूँढे है तो पलकों पे चमकने के बहाने
आँसू को मिरी आँख में आना नहीं आता

तारीख़ की आँखों में धुआँ हो गए ख़ुद ही
तुम को तो कोई घर भी जलाना नहीं आता

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aate aate mera naam aaya

आते आते मिरा नाम सा रह गया
उस के होंटों पे कुछ काँपता रह गया

रात मुजरिम थी दामन बचा ले गई
दिन गवाहों की सफ़ में खड़ा रह गया

वो मिरे सामने ही गया और मैं
रास्ते की तरह देखता रह गया

झूट वाले कहीं से कहीं बढ़ गए
और मैं था कि सच बोलता रह गया

आँधियों के इरादे तो अच्छे न थे
ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया

उस को काँधों पे ले जा रहे हैं ‘वसीम’
और वो जीने का हक़ माँगता रह गया

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mana bo sab chhupata hai

माना वो छुपने वाला हर दिल में छुप जाएगा
लेकिन ढूँढने वाला भी ढूँडेगा और पाएगा

क्या होता है मोहब्बत में ये मुझ को मालूम नहीं
जिस ने आग लगाई है वही आग बुझाएगा

मैं तो नाम का माली हूँ फूलों का रखवाला हूँ
जिस ने बेल लगाई है ख़ुद परवान चढ़ाएगा

जिस ने ख़िज़ाँ को भेजा है उस के पास बहार भी है
जिस ने बाग़ उजाड़ा है वो ख़ुद फूल खिलाएगा

‘अफ़सर’ मेरे कानों में जैसे कोई ये कहता है
वो सरकार हमारी है बे-माँगे भी पाएगा

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jinko har haal me khush pata ho

जिन को हर हालत में ख़ुश और शादमाँ पाता हूँ मैं
उन के गुलशन में बहार-ए-बे-ख़िज़ाँ पाता हूँ मैं

सुब्ह की मंज़िल का तारों से पता क्या पूछना
ज़ुल्मत-ए-शब कारवाँ-दर-कारवाँ पाता हूँ मैं

चाँद के उस पार सूरज से उधर तारों से दूर
रक़्स करते रोज़-ओ-शब लाखों जहाँ पाता हूँ मैं

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asar dekha ab dua raat bhar ki

असर देखा दुआ जब रात भर की
ज़िया कुछ कुछ है तारों में सहर की

हुए रुख़्सत जहाँ से सुब्ह होते
कहानी हिज्र की यूँ मुख़्तसर की

तड़प उट्ठे लहद के सोने वाले
ज़मीं की सम्त क्यूँ तुम ने नज़र की

सहर देखें ये हसरत ले गए हम
बताएँ क्या तुम्हें क्यूँकर सहर की

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nhi hai koi fikar kisi ko

नहीं ये फ़िक्र कोई रहबर-ए-कामिल नहीं मिलता
कोई दुनिया में मानूस-ए-मिज़ाज-ए-दिल नहीं मिलता

कभी साहिल पे रह कर शौक़ तूफ़ानों से टकराएँ
कभी तूफ़ाँ में रह कर फ़िक्र है साहिल नहीं मिलता

ये आना कोई आना है कि बस रस्मन चले आए
ये मिलना ख़ाक मिलना है कि दिल से दिल नहीं मिलता

शिकस्ता-पा को मुज़्दा ख़स्तगान-ए-राह को मुज़्दा
कि रहबर को सुराग़-ए-जादा-ए-मंज़िल नहीं मिलता

वहाँ कितनों को तख़्त ओ ताज का अरमाँ है क्या कहिए
जहाँ साइल को अक्सर कासा-ए-साइल नहीं मिलता

ये क़त्ल-ए-आम और बे-इज़्न क़त्ल-ए-आम क्या कहिए
ये बिस्मिल कैसे बिस्मिल हैं जिन्हें क़ातिल नहीं मिलता

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ashiki ja faza hoti hai

आशिक़ी जाँ-फ़ज़ा भी होती है
और सब्र-आज़मा भी होती है

रूह होती है कैफ़-परवर भी
और दर्द-आश्ना भी होती है

हुस्न को कर न दे ये शर्मिंदा
इश्क़ से ये ख़ता भी होती है

बन गई रस्म बादा-ख़्वारी भी
ये नमाज़ अब क़ज़ा भी होती है

जिस को कहते हैं नाला-ए-बरहम
साज़ में वो सदा भी होती है

क्या बता दो ‘मजाज़’ की दुनिया
कुछ हक़ीक़त-नुमा भी होती है

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jigar aur dil ko bachana hai

जिगर और दिल को बचाना भी है
नज़र आप ही से मिलाना भी है

मोहब्बत का हर भेद पाना भी है
मगर अपना दामन बचाना भी है

जो दिल तेरे ग़म का निशाना भी है
क़तील-ए-जफ़ा-ए-ज़माना भी है

ये बिजली चमकती है क्यूँ दम-ब-दम
चमन में कोई आशियाना भी है

ख़िरद की इताअत ज़रूरी सही
यही तो जुनूँ का ज़माना भी है

न दुनिया न उक़्बा कहाँ जाइए
कहीं अहल-ए-दिल का ठिकाना भी है

मुझे आज साहिल पे रोने भी दो
कि तूफ़ान में मुस्कुराना भी है

ज़माने से आगे तो बढ़िए ‘मजाज़’
ज़माने को आगे बढ़ाना भी है

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tamanna ban gai hai ab kya

तमन्ना बन गई है माया-ए-इल्ज़ाम क्या होगा
मगर दिल है अभी तक तिश्ना-ए-पैग़ाम क्या होगा

वो बेताब-ए-तमाशा ही सही ऐ ताब-ए-नज़्ज़ारा
लरज़ उठता है दिल ये सोच कर अंजाम क्या होगा

यहाँ जो कुछ भी है वो परतव-ए-एहसास है साक़ी
ब-जुज़ बादा जवाब-ए-गर्दिश-ए-अय्याम क्या होगा

कभी जिस के यक़ीं से काएनात-ए-इश्क़ रौशन थी
वही अब है असीर-ए-हल्क़ा-ए-औहाम क्या होगा

जुनून-ए-शौक़ का आलम हमा मस्ती सही लेकिन
ये आलम भी जवाब-ए-शोख़ी-ए-पैग़ाम क्या होगा

चले तो हो मिज़ाज-ए-यार की पुर्सिश को ऐ ‘बेकल’
मगर ये सोच लो अंदाज़-ए-इस्तिफ़्हाम क्या होगा

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