hum chattano ki tarah sahil hai

हम चटानों की तरह साहिल पे ढाले जाएँगे
फिर हमें सैलाब के धारे बहा ले जाएँगे

ऐसी रुत आई अँधेरे बन गए मिम्बर के बुत
गुंबद-ओ-मेहराब क्या जुगनू बचा ले जाएँगे

पहले सब ता’मीर करवाएँगे काग़ज़ के मकाँ
फिर हवा के रुख़ पे अंगारे उछाले जाएँगे

हम वफ़ादारों में हैं उस के मगर मश्कूक हैं
इक न इक दिन उस की महफ़िल से निकाले जाएँगे

जंग में ले जाएँगे सरहद पे सब तीर-ओ-तफ़ंग
हम तो अपने साथ मिट्टी की दुआ ले जाएँगे

शहर को तहज़ीब के झोंकों ने नंगा कर दिया
गाँव के सर का दुपट्टा भी उड़ा ले जाएँगे

दास्तान-ए-इश्क़ को ‘बेकल’ न दे गीतों का रूप
दोस्त हैं बेबाक सब लहजे चुरा ले जाएँगे

Read More...

chupke chupke raat din aasu bahana

चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है
हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है

बा-हज़ाराँ इज़्तिराब ओ सद-हज़ाराँ इश्तियाक़
तुझ से वो पहले-पहल दिल का लगाना याद है

बार बार उठना उसी जानिब निगाह-ए-शौक़ का
और तिरा ग़ुर्फ़े से वो आँखें लड़ाना याद है

तुझ से कुछ मिलते ही वो बेबाक हो जाना मिरा
और तिरा दाँतों में वो उँगली दबाना याद है

खींच लेना वो मिरा पर्दे का कोना दफ़अ’तन
और दुपट्टे से तिरा वो मुँह छुपाना याद है

जान कर सोता तुझे वो क़स्द-ए-पा-बोसी मिरा
और तिरा ठुकरा के सर वो मुस्कुराना याद है

तुझ को जब तन्हा कभी पाना तो अज़-राह-ए-लिहाज़
हाल-ए-दिल बातों ही बातों में जताना याद है

जब सिवा मेरे तुम्हारा कोई दीवाना न था
सच कहो कुछ तुम को भी वो कार-ख़ाना याद है

ग़ैर की नज़रों से बच कर सब की मर्ज़ी के ख़िलाफ़
वो तिरा चोरी-छुपे रातों को आना याद है

आ गया गर वस्ल की शब भी कहीं ज़िक्र-ए-फ़िराक़
वो तिरा रो रो के मुझ को भी रुलाना याद है

दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए
वो तिरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है

आज तक नज़रों में है वो सोहबत-ए-राज़-ओ-नियाज़
अपना जाना याद है तेरा बुलाना याद है

मीठी मीठी छेड़ कर बातें निराली प्यार की
ज़िक्र दुश्मन का वो बातों में उड़ाना याद है

देखना मुझ को जो बरगश्ता तो सौ सौ नाज़ से
जब मना लेना तो फिर ख़ुद रूठ जाना याद है

चोरी चोरी हम से तुम आ कर मिले थे जिस जगह
मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है

शौक़ में मेहंदी के वो बे-दस्त-ओ-पा होना तिरा
और मिरा वो छेड़ना वो गुदगुदाना याद है

बावजूद-ए-इद्दिया-ए-इत्तिक़ा ‘हसरत’ मुझे
आज तक अहद-ए-हवस का वो फ़साना याद है

Read More...

yaad kar bo din jo tera tha

याद कर वो दिन कि तेरा कोई सौदाई न था
बावजूद-ए-हुस्न तू आगाह-ए-रानाई न था

इश्क़-ए-रोज़-अफ़्ज़ूँ पे अपने मुझ को हैरानी न थी
जल्वा-ए-रंगीं पे तुझ को नाज़-ए-यकताई न था

दीद के क़ाबिल थी मेरे इश्क़ की भी सादगी
जबकि तेरा हुस्न सरगर्म-ए-ख़ुद-आराई न था

क्या हुए वो दिन कि महव-ए-आरज़ू थे हुस्न ओ इश्क़
रब्त था दोनों में गो रब्त-ए-शनासाई न था

तू ने ‘हसरत’ की अयाँ तहज़ीब-ए-रस्म-ए-आशिक़ी
इस से पहले ए’तिबार-ए-शान-ए-रुस्वाई न था

Read More...

dar-e-dil ki unhe kya khabar

दर्द-ए-दिल की उन्हें ख़बर न हुई
कोई तदबीर कारगर न हुई

कोशिशें हम ने कीं हज़ार मगर
इश्क़ में एक मो’तबर न हुई

कर चुके हम को बे-गुनाह शहीद
आप की आँख फिर भी तर न हुई

ना-रसा आह-ए-आशिक़ाँ वो कहाँ
दूर उन से जो बे-असर न हुई

आई बुझने को अपनी शम-ए-हयात
शब-ए-ग़म की मगर सहर न हुई

शब थे हम गर्म-ए-नाला-हा-ए-फ़िराक़
सुब्ह इक आह-ए-सर्द सर न हुई

तुम से क्यूँकर वो छुप सके ‘हसरत’
निगह-ए-शौक़ पर्दा दर न हुई

Read More...

ye hai tera diwana

ख़ू समझ में नहीं आती तिरे दीवानों की
दामनों की न ख़बर है न गिरेबानों की

जल्वा-ए-साग़र-ओ-मीना है जो हमरंग-ए-बहार
रौनक़ें तुर्फ़ा तरक़्क़ी पे हैं मय-ख़ानों की

हर तरफ़ बे-ख़ुदी ओ बे-ख़बरी की है नुमूद
क़ाबिल-ए-दीद है दुनिया तिरे हैरानों की

सहल इस से तो यही है कि सँभालें दिल को
मिन्नतें कौन करे आप के दरबानों की

आँख वाले तिरी सूरत पे मिटे जाते हैं
शम-ए-महफ़िल की तरफ़ भीड़ है परवानों की

ऐ जफ़ाकार तिरे अहद से पहले तो न थी
कसरत इस दर्जा मोहब्बत के पशीमानों की

राज़-ए-ग़म से हमें आगाह किया ख़ूब किया
कुछ निहायत ही नहीं आप के एहसानों की

दुश्मन-ए-अहल-ए-मुरव्वत है वो बेगाना-ए-उन्स
शक्ल परियों की है ख़ू भी नहीं इंसानों की

हमरह-ए-ग़ैर मुबारक उन्हें गुल-गश्त-ए-चमन
सैर हम को भी मयस्सर है बयाबानों की

इक बखेड़ा है नज़र में सर-ओ-सामान-ए-वजूद
अब ये हालत है तिरे सोख़्ता-सामानों की

फ़ैज़-ए-साक़ी की अजब धूम है मय-ख़ानों में
हर तरफ़ मय की तलब माँग है पैमानों की

आशिक़ों ही का जिगर है कि हैं ख़ुरसन्द-ए-जफ़ा
काफ़िरों की है ये हिम्मत न मुसलमानों की

याद फिर ताज़ा हुई हाल से तेरे ‘हसरत’
क़ैस ओ फ़रहाद के गुज़रे हुए अफ़्सानों की

Read More...

yakeen ko kya ho gya hai

यक़ीन को सींचना है ख़्वाबों को पालना है
बचा है थोड़ा सा जो असासा सँभालना है

सवाल ये है छुड़ा लें मसअलों से दामन
कि इन में रह कर ही कोई रस्ता निकालना है

जहान-ए-सौदागरी में दिल का वकील बन कर
इस अहद की मुंसिफ़ी को हैरत में डालना है

जो मुझ में बैठा उड़ाता रहता है नींद मेरी
मुझे अब उस आदमी को बाहर निकालना है

ज़मीन ज़ख़्मों पे तेरे मरहम भी हम रखेंगे
अभी गड़ी सूइयों को तन से निकालना है

किसी को मैदान में उतरना है जीतना है
किसी को ता-उम्र सिर्फ़ सिक्का उछालना है

ये नाव काग़ज़ की जिस ने नद्दी तो पार कर ली
कुछ और सीखे अब इस को दरिया में डालना है

Read More...

tarke mohabbat na ki maine

थी अलग राह मगर तर्क मोहब्बत नहीं की
उस ने भी सोचा बहुत हम ने भी उजलत नहीं की

तू ने जो दर्द की दौलत हमें दी थी उस में
कुछ इज़ाफ़ा ही किया हम ने ख़यानत नहीं की

ज़ाविया क्या है जो करता है तुझे सब से अलग
क्यूँ तिरे बा’द किसी और की हसरत नहीं की

आए और आ के चले भी गए क्या क्या मौसम
तुम ने दरवाज़ा ही वा करने की हिम्मत नहीं की

अपने अतवार में कितना बड़ा शातिर होगा
ज़िंदगी तुझ से कभी जिस ने शिकायत नहीं की

एक इक साँस का अपने से लिया सख़्त हिसाब
हम भी क्या थे कभी ख़ुद से भी मुरव्वत नहीं की

Read More...

dekhe kareeb se use

देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे
इक आदमी तो शहर में ऐसा दिखाई दे

अब भीक माँगने के तरीक़े बदल गए
लाज़िम नहीं कि हाथ में कासा दिखाई दे

नेज़े पे रख के और मिरा सर बुलंद कर
दुनिया को इक चराग़ तो जलता दिखाई दे

दिल में तिरे ख़याल की बनती है इक धनक
सूरज सा आईने से गुज़रता दिखाई दे

चल ज़िंदगी की जोत जगाए अजब नहीं
लाशों के दरमियाँ कोई रस्ता दिखाई दे

क्या कम है कि वजूद के सन्नाटे में ‘ज़फ़र’
इक दर्द की सदा है कि ज़िंदा दिखाई दे

Read More...

dhoop hai kya aur saya kya hai

धूप है क्या और साया क्या है अब मालूम हुआ
ये सब खेल तमाशा क्या है अब मालूम हुआ

हँसते फूल का चेहरा देखूँ और भर आए आँख
अपने साथ ये क़िस्सा क्या है अब मालूम हुआ

हम बरसों के ब’अद भी उस को अब तक भूल न पाए
दिल से उस का रिश्ता क्या है अब मालूम हुआ

सहरा सहरा प्यासे भटके सारी उम्र जले
बादल का इक टुकड़ा क्या है अब मालूम हुआ

Read More...

sab qatl ho ke tere mukabil

सब क़त्ल हो के तेरे मुक़ाबिल से आए हैं
हम लोग सुर्ख़-रू हैं कि मंज़िल से आए हैं

शम-ए-नज़र ख़याल के अंजुम जिगर के दाग़
जितने चराग़ हैं तिरी महफ़िल से आए हैं

उठ कर तो आ गए हैं तिरी बज़्म से मगर
कुछ दिल ही जानता है कि किस दिल से आए हैं

हर इक क़दम अजल था हर इक गाम ज़िंदगी
हम घूम फिर के कूचा-ए-क़ातिल से आए हैं

बाद-ए-ख़िज़ाँ का शुक्र करो ‘फ़ैज़’ जिस के हाथ
नामे किसी बहार-ए-शिमाइल से आए हैं

Read More...