shaikh sahab se rasm-o-rah

शैख़ साहब से रस्म-ओ-राह न की
शुक्र है ज़िंदगी तबाह न की

तुझ को देखा तो सेर-चश्म हुए
तुझ को चाहा तो और चाह न की

तेरे दस्त-ए-सितम का इज्ज़ नहीं
दिल ही काफ़िर था जिस ने आह न की

थे शब-ए-हिज्र काम और बहुत
हम ने फ़िक्र-ए-दिल-ए-तबाह न की

कौन क़ातिल बचा है शहर में ‘फ़ैज़’
जिस से यारों ने रस्म-ओ-राह न की

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kisi kali ne bhi dekha hai

किसी कली ने भी देखा न आँख भर के मुझे
गुज़र गई जरस-ए-गुल उदास कर के मुझे

मैं सो रहा था किसी याद के शबिस्ताँ में
जगा के छोड़ गए क़ाफ़िले सहर के मुझे

मैं रो रहा था मुक़द्दर की सख़्त राहों में
उड़ा के ले गए जादू तिरी नज़र के मुझे

मैं तेरे दर्द की तुग़्यानियों में डूब गया
पुकारते रहे तारे उभर उभर के मुझे

तिरे फ़िराक़ की रातें कभी न भूलेंगी
मज़े मिले उन्हीं रातों में उम्र भर के मुझे

ज़रा सी देर ठहरने दे ऐ ग़म-ए-दुनिया
बुला रहा है कोई बाम से उतर के मुझे

फिर आज आई थी इक मौज-ए-हवा-ए-तरब
सुना गई है फ़साने इधर उधर के मुझे

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hoti hai tere naam se bahshat

होती है तेरे नाम से वहशत कभी कभी
बरहम हुई है यूँ भी तबीअत कभी कभी

ऐ दिल किसे नसीब ये तौफ़ीक़-ए-इज़्तिराब
मिलती है ज़िंदगी में ये राहत कभी कभी

तेरे करम से ऐ अलम-ए-हुस्न-आफ़रीं
दिल बन गया है दोस्त की ख़ल्वत कभी कभी

जोश-ए-जुनूँ में दर्द की तुग़्यानियों के साथ
अश्कों में ढल गई तिरी सूरत कभी कभी

तेरे क़रीब रह के भी दिल मुतमइन न था
गुज़री है मुझ पे ये भी क़यामत कभी कभी

कुछ अपना होश था न तुम्हारा ख़याल था
यूँ भी गुज़र गई शब-ए-फ़ुर्क़त कभी कभी

ऐ दोस्त हम ने तर्क-ए-मोहब्बत के बावजूद
महसूस की है तेरी ज़रूरत कभी कभी

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dil me ek lahar si uthi hai

दिल में इक लहर सी उठी है अभी
कोई ताज़ा हवा चली है अभी

कुछ तो नाज़ुक मिज़ाज हैं हम भी
और ये चोट भी नई है अभी

शोर बरपा है ख़ाना-ए-दिल में
कोई दीवार सी गिरी है अभी

भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज़ की कमी है अभी

तू शरीक-ए-सुख़न नहीं है तो क्या
हम-सुख़न तेरी ख़ामुशी है अभी

याद के बे-निशाँ जज़ीरों से
तेरी आवाज़ आ रही है अभी

शहर की बे-चराग़ गलियों में
ज़िंदगी तुझ को ढूँडती है अभी

सो गए लोग उस हवेली के
एक खिड़की मगर खुली है अभी

तुम तो यारो अभी से उठ बैठे
शहर में रात जागती है अभी

वक़्त अच्छा भी आएगा ‘नासिर’
ग़म न कर ज़िंदगी पड़ी है अभी

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kya jamana tha mera

क्या ज़माना था कि हम रोज़ मिला करते थे
रात-भर चाँद के हमराह फिरा करते थे

जहाँ तन्हाइयाँ सर फोड़ के सो जाती हैं
इन मकानों में अजब लोग रहा करते थे

कर दिया आज ज़माने ने उन्हें भी मजबूर
कभी ये लोग मिरे दुख की दवा करते थे

देख कर जो हमें चुप-चाप गुज़र जाता है
कभी उस शख़्स को हम प्यार किया करते थे

इत्तिफ़ाक़ात-ए-ज़माना भी अजब हैं नासिर
आज वो देख रहे हैं जो सुना करते थे

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acha tumhare shahar ka dostoor hai

अच्छा तुम्हारे शहर का दस्तूर हो गया
जिस को गले लगा लिया वो दूर हो गया

काग़ज़ में दब के मर गए कीड़े किताब के
दीवाना बे-पढ़े-लिखे मशहूर हो गया

महलों में हम ने कितने सितारे सजा दिए
लेकिन ज़मीं से चाँद बहुत दूर हो गया

तन्हाइयों ने तोड़ दी हम दोनों की अना!
आईना बात करने पे मजबूर हो गया

दादी से कहना उस की कहानी सुनाइए
जो बादशाह इश्क़ में मज़दूर हो गया

सुब्ह-ए-विसाल पूछ रही है अजब सवाल
वो पास आ गया कि बहुत दूर हो गया

कुछ फल ज़रूर आएँगे रोटी के पेड़ में
जिस दिन मिरा मुतालबा मंज़ूर हो गया

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na aate hau to takraar kya thi

न आते हमें इस में तकरार क्या थी
मगर वा’दा करते हुए आर क्या थी

तुम्हारे पयामी ने सब राज़ खोला
ख़ता इस में बंदे की सरकार क्या थी

भरी बज़्म में अपने आशिक़ को ताड़ा
तिरी आँख मस्ती में हुश्यार क्या थी

तअम्मुल तो था उन को आने में क़ासिद
मगर ये बता तर्ज़-ए-इंकार क्या थी

खिंचे ख़ुद-बख़ुद जानिब-ए-तूर मूसा
कशिश तेरी ऐ शौक़-ए-दीदार क्या थी

कहीं ज़िक्र रहता है ‘इक़बाल’ तेरा
फ़ुसूँ था कोई तेरी गुफ़्तार क्या थी

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meri ibtida kya hai

ख़िर्द-मंदों से क्या पूछूँ कि मेरी इब्तिदा क्या है
कि मैं इस फ़िक्र में रहता हूँ मेरी इंतिहा क्या है

ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है

मक़ाम-ए-गुफ़्तुगू क्या है अगर मैं कीमिया-गर हूँ
यही सोज़-ए-नफ़स है और मेरी कीमिया क्या है

नज़र आईं मुझे तक़दीर की गहराइयाँ इस में
न पूछ ऐ हम-नशीं मुझ से वो चश्म-ए-सुर्मा-सा क्या है

अगर होता वो ‘मजज़ूब’-ए-फ़रंगी इस ज़माने में
तो ‘इक़बाल’ उस को समझाता मक़ाम-ए-किबरिया क्या है

नवा-ए-सुब्ह-गाही ने जिगर ख़ूँ कर दिया मेरा
ख़ुदाया जिस ख़ता की ये सज़ा है वो ख़ता क्या है

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be takalluf bosa-e-julf hai

बे-तकल्लुफ़ बोसा-ए-ज़ुल्फ़-ए-चलीपा लीजिए
नक़्द-ए-दिल मौजूद है फिर क्यूँ न सौदा लीजिए

दिल तो पहले ले चुके अब जान के ख़्वाहाँ हैं आप
इस में भी मुझ को नहीं इंकार अच्छा लीजिए

पाँव पकड़ कर कहती है ज़ंजीर-ए-ज़िंदाँ में रहो
वहशत-ए-दिल का है ईमा राह-ए-सहरा लीजिए

ग़ैर को तो कर के ज़िद करते हैं खाने में शरीक
मुझ से कहते हैं अगर कुछ भूक हो खा लीजिए

ख़ुश-नुमा चीज़ें हैं बाज़ार-ए-जहाँ में बे-शुमार
एक नक़द-ए-दिल से या-रब मोल क्या क्या लीजिए

कुश्ता आख़िर आतिश-ए-फ़ुर्क़त से होना है मुझे
और चंदे सूरत-ए-सीमाब तड़पा लीजिए

फ़स्ल-ए-गुल के आते ही ‘अकबर’ हुए बेहोश आप
खोलिए आँखों को साहब जाम-ए-सहबा लीजिए

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unhe nigah hai apne jamal ki

उन्हें निगाह है अपने जमाल ही की तरफ़
नज़र उठा के नहीं देखते किसी की तरफ़

तवज्जोह अपनी हो क्या फ़न्न-ए-शाइरी की तरफ़
नज़र हर एक की जाती है ऐब ही की तरफ़

लिखा हुआ है जो रोना मिरे मुक़द्दर में
ख़याल तक नहीं जाता कभी हँसी की तरफ़

तुम्हारा साया भी जो लोग देख लेते हैं
वो आँख उठा के नहीं देखते परी की तरफ़

बला में फँसता है दिल मुफ़्त जान जाती है
ख़ुदा किसी को न ले जाए उस गली की तरफ़

कभी जो होती है तकरार ग़ैर से हम से
तो दिल से होते हो दर-पर्दा तुम उसी की तरफ़

निगाह पड़ती है उन पर तमाम महफ़िल की
वो आँख उठा के नहीं देखते किसी की तरफ़

निगाह उस बुत-ए-ख़ुद-बीं की है मिरे दिल पर
न आइने की तरफ़ है न आरसी की तरफ़

क़ुबूल कीजिए लिल्लाह तोहफ़ा-ए-दिल को
नज़र न कीजिए इस की शिकस्तगी की तरफ़

यही नज़र है जो अब क़ातिल-ए-ज़माना हुई
यही नज़र है कि उठती न थी किसी की तरफ़

ग़रीब-ख़ाना में लिल्लाह दो-घड़ी बैठो
बहुत दिनों में तुम आए हो इस गली की तरफ़

ज़रा सी देर ही हो जाएगी तो क्या होगा
घड़ी घड़ी न उठाओ नज़र घड़ी की तरफ़

जो घर में पूछे कोई ख़ौफ़ क्या है कह देना
चले गए थे टहलते हुए किसी की तरफ़

हज़ार जल्वा-ए-हुस्न-ए-बुताँ हो ऐ ‘अकबर’
तुम अपना ध्यान लगाए रहो उसी की तरफ़

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