rukhsat hua to aakh mila kar nhi gya

रुख़्सत हुआ तो आँख मिला कर नहीं गया
वो क्यूँ गया है ये भी बता कर नहीं गया

वो यूँ गया कि बाद-ए-सबा याद आ गई
एहसास तक भी हम को दिला कर नहीं गया

यूँ लग रहा है जैसे अभी लौट आएगा
जाते हुए चराग़ बुझा कर नहीं गया

बस इक लकीर खींच गया दरमियान में
दीवार रास्ते में बना कर नहीं गया

शायद वो मिल ही जाए मगर जुस्तुजू है शर्त
वो अपने नक़्श-ए-पा तो मिटा कर नहीं गया

घर में है आज तक वही ख़ुश्बू बसी हुई
लगता है यूँ कि जैसे वो आ कर नहीं गया

तब तक तो फूल जैसी ही ताज़ा थी उस की याद
जब तक वो पत्तियों को जुदा कर नहीं गया

रहने दिया न उस ने किसी काम का मुझे
और ख़ाक में भी मुझ को मिला कर नहीं गया

वैसी ही बे-तलब है अभी मेरी ज़िंदगी
वो ख़ार-ओ-ख़स में आग लगा कर नहीं गया

‘शहज़ाद’ ये गिला ही रहा उस की ज़ात से
जाते हुए वो कोई गिला कर नहीं गया

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teri anjuman me ye dekha

तिरी अंजुमन में ज़ालिम अजब एहतिमाम देखा
कहीं ज़िंदगी की बारिश कहीं क़त्ल-ए-आम देखा

मेरी अर्ज़-ए-शौक़ पढ़ लें ये कहाँ उन्हें गवारा
वहीं चाक कर दिया ख़त जहाँ मेरा नाम देखा

बड़ी मिन्नतों से आ कर वो मुझे मना रहे हैं
मैं बचा रहा हूँ दामन मिरा इंतिक़ाम देखा

ऐ ‘शकील’ रूह-परवर तिरी बे-ख़ुदी के नग़्मे
मगर आज तक न हम ने तिरे लब पे जाम देखा

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kaise kahdo mulakaat nhi hoti

कैसे कह दूँ की मुलाक़ात नहीं होती है
रोज़ मिलते हैं मगर बात नहीं होती है

आप लिल्लाह न देखा करें आईना कभी
दिल का आ जाना बड़ी बात नहीं होती है

छुप के रोता हूँ तिरी याद में दुनिया भर से
कब मिरी आँख से बरसात नहीं होती है

हाल-ए-दिल पूछने वाले तिरी दुनिया में कभी
दिन तो होता है मगर रात नहीं होती है

जब भी मिलते हैं तो कहते हैं कि कैसे हो ‘शकील’
इस से आगे तो कोई बात नहीं होती है

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Zindagi tujh pe iljaam hai

ज़िंदगी तुझ पे अब इल्ज़ाम कोई क्या रक्खे
अपना एहसास ही ऐसा है जो तन्हा रक्खे

किन शिकस्तों के शब-ओ-रोज़ से गुज़रा होगा
वो मुसव्विर जो हर इक नक़्श अधूरा रक्खे

ख़ुश्क मिट्टी ही ने जब पाँव जमाने न दिए
बहते दरिया से फिर उम्मीद कोई क्या रक्खे

आ ग़म-ए-दोस्त उसी मोड़ पे हो जाऊँ जुदा
जो मुझे मेरा ही रहने दे न तेरा रक्खे

आरज़ूओं के बहुत ख़्वाब तो देखो हो ‘वसीम’
जाने किस हाल में बे-दर्द ज़माना रक्खे

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mere gham ko jo apna batate

मेरे ग़म को जो अपना बताते रहे
वक़्त पड़ने पे हाथों से जाते रहे

बारिशें आईं और फ़ैसला कर गईं
लोग टूटी छतें आज़माते रहे

आँखें मंज़र हुईं कान नग़्मा हुए
घर के अंदाज़ ही घर से जाते रहे

शाम आई तो बिछड़े हुए हम-सफ़र
आँसुओं से इन आँखों में आते रहे

नन्हे बच्चों ने छू भी लिया चाँद को
बूढ़े बाबा कहानी सुनाते रहे

दूर तक हाथ में कोई पत्थर न था
फिर भी हम जाने क्यूँ सर बचाते रहे

शाइरी ज़हर थी क्या करें ऐ ‘वसीम’
लोग पीते रहे हम पिलाते रहे

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apne saye ko itna samjhaya

अपने साए को इतना समझाने दे
मुझ तक मेरे हिस्से की धूप आने दे

एक नज़र में कई ज़माने देखे तो
बूढ़ी आँखों की तस्वीर बनाने दे

बाबा दुनिया जीत के मैं दिखला दूँगा
अपनी नज़र से दूर तो मुझ को जाने दे

मैं भी तो इस बाग़ का एक परिंदा हूँ
मेरी ही आवाज़ में मुझ को गाने दे

फिर तो ये ऊँचा ही होता जाएगा
बचपन के हाथों में चाँद आ जाने दे

फ़स्लें पक जाएँ तो खेत से बिछ्ड़ेंगी
रोती आँख को प्यार कहाँ समझाने दे

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kaha sabab kaha azab

कहाँ सवाब कहाँ क्या अज़ाब होता है
मोहब्बतों में कब इतना हिसाब होता है

बिछड़ के मुझ से तुम अपनी कशिश न खो देना
उदास रहने से चेहरा ख़राब होता है

उसे पता ही नहीं है कि प्यार की बाज़ी
जो हार जाए वही कामयाब होता है

जब उस के पास गँवाने को कुछ नहीं होता
तो कोई आज का इज़्ज़त-मआब होता है

जिसे मैं लिखता हूँ ऐसे कि ख़ुद ही पढ़ पाँव
किताब-ए-ज़ीस्त में ऐसा भी बाब होता है

बहुत भरोसा न कर लेना अपनी आँखों पर
दिखाई देता है जो कुछ वो ख़्वाब होता है

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fool the badam bhi tha

फूल थे बादल भी था और वो हसीं सूरत भी थी
दिल में लेकिन और ही इक शक्ल की हसरत भी थी

जो हवा में घर बनाए काश कोई देखता
दश्त में रहते थे पर ता’मीर की आदत भी थी

कह गया मैं सामने उस के जो दिल का मुद्दआ’
कुछ तो मौसम भी अजब था कुछ मिरी हिम्मत भी थी

अजनबी शहरों में रहते उम्र सारी कट गई
गो ज़रा से फ़ासले पर घर की हर राहत भी थी

क्या क़यामत है ‘मुनीर’ अब याद भी आते नहीं
वो पुराने आश्ना जिन से हमें उल्फ़त भी थी

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sare manjar ek jaise hai

सारे मंज़र एक जैसे सारी बातें एक सी
सारे दिन हैं एक से और सारी रातें एक सी

बे-नतीजा बे-समर जंग-ओ-जदल सूद ओ ज़ियाँ
सारी जीतें एक जैसी सारी मातें एक सी

सब मुलाक़ातों का मक़्सद कारोबार-ए-ज़र-गरी
सब की दहशत एक जैसी सब की घातें एक सी

अब किसी में अगले वक़्तों की वफ़ा बाक़ी नहीं
सब क़बीले एक हैं अब सारी ज़ातें एक सी

एक ही रुख़ की असीरी ख़्वाब है शहरों का अब
उन के मातम एक से उन की बरातें एक सी

हों अगर ज़ेर-ए-ज़मीं तो फ़ाएदा होने का क्या
संग ओ गौहर एक हैं फिर सारी धातें एक सी

ऐ ‘मुनीर’ आज़ाद हो इस सेहर-ए-यक-रंगी से तू
हो गए सब ज़हर यकसाँ सब नबातें एक सी

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kidher jaye aadmi

ख़्वाब-ओ-ख़याल-ए-गुल से किधर जाए आदमी
इक गुलशन-ए-हवा है जिधर जाए आदमी

देखे हुए से लगते हैं रस्ते मकाँ मकीं
जिस शहर में भटक के जिधर जाए आदमी

देखे हैं वो नगर कि अभी तक हूँ ख़ौफ़ में
वो सूरतें मिली हैं कि डर जाए आदमी

ये बहर-ए-हस्त-ओ-बूद है बे-गौहर-ए-मुराद
गहराइयों में इस की अगर जाए आदमी

पर्दे में रंग-ओ-बू के सफ़र-दर-सफ़र ‘मुनीर’
इन मंज़िलों से कैसे गुज़र जाए आदमी

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