mai sadke tujhpe jao

मैं सदक़े तुझ पे अदा तेरे मुस्कुराने की
समेटे लेती है रंगीनियाँ ज़माने की

जो ज़ब्त-ए-शौक़ ने बाँधा तिलिस्म-ए-ख़ुद्दारी
शिकायत आप की रूठी हुई अदा ने की

कुछ और जुरअत-ए-दस्त-ए-हवस बढ़ाती है
वो बरहमी जो हो तम्हीद मुस्कुराने की

कुछ ऐसा रंग मिरी ज़िंदगी ने पकड़ा था
कि इब्तिदा ही से तरकीब थी फ़साने की

जलाने वाले जलाते ही हैं चराग़ आख़िर
ये क्या कहा कि हवा तेज़ है ज़माने की

हवाएँ तुंद हैं और किस क़दर हैं तुंद ‘जमील’
अजब नहीं कि बदल जाए रुत ज़माने की

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suna hai raft h usko kharab halo se

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं

सुना है रब्त है उस को ख़राब-हालों से
सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं

सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उस की
सो हम भी उस की गली से गुज़र के देखते हैं

सुना है उस को भी है शेर ओ शाइरी से शग़फ़
सो हम भी मो’जिज़े अपने हुनर के देखते हैं

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं

सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं

सुना है हश्र हैं उस की ग़ज़ाल सी आँखें
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं

सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उस की
सुना है शाम को साए गुज़र के देखते हैं

सुना है उस की सियह-चश्मगी क़यामत है
सो उस को सुरमा-फ़रोश आह भर के देखते हैं

सुना है उस के लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पे इल्ज़ाम धर के देखते हैं

सुना है आइना तिमसाल है जबीं उस की
जो सादा दिल हैं उसे बन-सँवर के देखते हैं

सुना है जब से हमाइल हैं उस की गर्दन में
मिज़ाज और ही लाल ओ गुहर के देखते हैं

सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में
पलंग ज़ाविए उस की कमर के देखते हैं

सुना है उस के बदन की तराश ऐसी है
कि फूल अपनी क़बाएँ कतर के देखते हैं

वो सर्व-क़द है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
कि उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं

बस इक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रह-रवान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं

सुना है उस के शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीं उधर के भी जल्वे इधर के देखते हैं

रुके तो गर्दिशें उस का तवाफ़ करती हैं
चले तो उस को ज़माने ठहर के देखते हैं

किसे नसीब कि बे-पैरहन उसे देखे
कभी कभी दर ओ दीवार घर के देखते हैं

कहानियाँ ही सही सब मुबालग़े ही सही
अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं

अब उस के शहर में ठहरें कि कूच कर जाएँ
‘फ़राज़’ आओ सितारे सफ़र के देखते हैं

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dast me piyas bhujhate huye

दश्त में प्यास बुझाते हुए मर जाते हैं
हम परिंदे कहीं जाते हुए मर जाते हैं

हम हैं सूखे हुए तालाब पे बैठे हुए हँस
जो तअ’ल्लुक़ को निभाते हुए मर जाते हैं

घर पहुँचता है कोई और हमारे जैसा
हम तिरे शहर से जाते हुए मर जाते हैं

किस तरह लोग चले जाते हैं उठ कर चुप-चाप
हम तो ये ध्यान में लाते हुए मर जाते हैं

उन के भी क़त्ल का इल्ज़ाम हमारे सर है
जो हमें ज़हर पिलाते हुए मर जाते हैं

ये मोहब्बत की कहानी नहीं मरती लेकिन
लोग किरदार निभाते हुए मर जाते हैं

हम हैं वो टूटी हुई कश्तियों वाले ‘ताबिश’
जो किनारों को मिलाते हुए मर जाते हैं

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unko ye shikayat hai

उन को ये शिकायत है कि हम कुछ नहीं कहते
अपनी तो ये आदत है कि हम कुछ नहीं कहते

मजबूर बहुत करता है ये दिल तो ज़बाँ को
कुछ ऐसी ही हालत है कि हम कुछ नहीं कहते

कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते
दुनिया की इनायत है कि हम कुछ नहीं कहते

कुछ कहने पे तूफ़ान उठा लेती है दुनिया
अब इस पे क़यामत है कि हम कुछ नहीं कहते

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jab nazar basar ho

जो वो नज़र बसर-ए-लुत्फ़ आम हो जाए
अजब नहीं कि हमारा भी काम हो जाए

शराब-ए-शौक़ की क़ीमत है नक़्द-ए-जान-ए-अज़ीज़
अगर ये बाइस-ए-कैफ़-ए-दवाम हो जाए

रहीन-ए-यास रहें अहल-ए-आरज़ू कब तक
कभी तो आप का दरबार आम हो जाए

जो और कुछ हो तिरी दीद के सिवा मंज़ूर
तो मुझ पे ख़्वाहिश-ए-जन्नत हराम हो जाए

वो दूर ही से हमें देख लें यही है बहुत
मगर क़ुबूल हमारा सलाम हो जाए

अगर वो हुस्न-ए-दिल-आरा कभी हो जल्वा फ़रोश
फ़रोग़-ए-नूर में गुम ज़र्फ़-ए-बाम हो जाए

सुना है बरसर-ए-बख़ि़्शश है आज पीर मुग़ाँ
हमें भी काश अता कोई जाम हो जाए

तिरे करम पे है मौक़ूफ़ कामरानी-ए-शौक़
ये ना-तमाम इलाही तमाम हो जाए

सितम के बाद करम है जफ़ा के बाद अता
हमें है बस जो यही इल्तिज़ाम हो जाए

अता हो सोज़ वो या रब जुनून-ए-‘हसरत’ को
कि जिस से पुख़्ता ये सौदा-ए-ख़ाम हो जाए

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luft ki unse iltiza na kar

लुत्फ़ की उन से इल्तिजा न करें
हम ने ऐसा कभी किया न करें

मिल रहेगा जो उन से मिलना है
लब को शर्मिंदा-ए-दुआ न करें

सब्र मुश्किल है आरज़ू बेकार
क्या करें आशिक़ी में क्या न करें

मस्लक-ए-इश्क़ में है फ़िक्र हराम
दिल को तदबीर-आश्ना न करें

भूल ही जाएँ हम को ये तो न हो
लोग मेरे लिए दुआ न करें

मर्ज़ी-ए-यार के ख़िलाफ़ न हो
कौन कहता है वो जफ़ा न करें

शौक़ उन का सो मिट चुका ‘हसरत’
क्या करें हम अगर वफ़ा न करें

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kismat ko kya malom

क़िस्मत-ए-शौक़ आज़मा न सके
उन से हम आँख भी मिला न सके

हम से याँ रंज-ए-हिज्र उठ न सका
वाँ वो मजबूर थे वो आ न सके

डर ये था रो न दें कहीं वो उन्हें
हम हँसी में भी गुदगुदा न सके

हम से दिल आप ने उठा तो लिया
पर कहीं और भी लगा न सके

अब कहाँ तुम कहाँ वो रब्त-ए-वफ़ा
याद भी जिस की हम दिला न सके

दिल में क्या क्या थे अर्ज़-ए-हाल के शौक़
उस ने पूछा तो कुछ बता न सके

हम तो क्या भूलते उन्हें ‘हसरत’
दिल से वो भी हमें भुला न सके

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gham ko humne inayat samjha

चाहत को ज़िंदगी की ज़रूरत समझ लिया
अब ग़म को हम ने तेरी इनायत समझ लिया

खाते रहे हैं ज़ीस्त में क्या क्या मुग़ालते
क़ामत को इस हसीं की क़यामत समझ लिया

किरदार क्या रहा है कभी ये भी सोचते
सज्दे किए तो उन को इबादत समझ लिया

रेशम से नर्म लहजे के पीछे मफ़ाद था
इस ताजिरी को हम ने शराफ़त समझ लिया

अब है कोई हुसैन न लश्कर हुसैन का
सर कट गए तो हम ने शहादत समझ लिया

इस तरह उम्र चैन से काटी ‘शकील’ ने
दुख उस से जो मिला उसे राहत समझ लिया

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jazbaat ka elaan hai aakhe

हर तरह के जज़्बात का एलान हैं आँखें
शबनम कभी शो’ला कभी तूफ़ान हैं आँखें

आँखों से बड़ी कोई तराज़ू नहीं होती
तुलता है बशर जिस में वो मीज़ान हैं आँखें

आँखें ही मिलाती हैं ज़माने में दिलों को
अंजान हैं हम तुम अगर अंजान हैं आँखें

लब कुछ भी कहें इस से हक़ीक़त नहीं खुलती
इंसान के सच झूट की पहचान हैं आँखें

आँखें न झुकीं तेरी किसी ग़ैर के आगे
दुनिया में बड़ी चीज़ मिरी जान! हैं आँखें

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safar me dhoop hain

सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो

किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं
तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो

यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिरा के अगर तुम सँभल सको तो चलो

कहीं नहीं कोई सूरज धुआँ धुआँ है फ़ज़ा
ख़ुद अपने आप से बाहर निकल सको तो चलो

यही है ज़िंदगी कुछ ख़्वाब चंद उम्मीदें
इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो

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