jab bhi do aasho nikle

जब भी दो आँसू निकल कर रह गए
दर्द के उनवाँ बदल कर रह गए

कितनी फ़रियादें लबों पर रुक गईं
कितने अश्क आहों में ढल कर रह गए

रुख़ बदल जाता मिरी तक़दीर का
आप ही तेवर बदल कर रह गए

खुल के रोने की तमन्ना थी हमें
एक दो आँसू निकल कर रह गए

ज़िंदगी भर साथ देना था जिन्हें
दो क़दम हमराह चल कर रह गए

तेरे अंदाज़-ए-‘तबस्सुम’ का फ़ुसूँ
हादसे पहलू बदल कर रह गए

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ghar sulagta sa hai

घर सुलगता सा है और जलता हुआ सा शहर है
ज़िंदगानी के लिए अब दो-जहाँ का क़हर है

जाओ लेकिन सुर्ख़ शो’लों के सिवा पाओगे क्या
सनसनाते दश्त में काली हवा का क़हर है

दिल ये क्या जाने कि क्या शय है हरारत ख़ून की
जिस्म क्या समझे कि कैसी ज़िंदगी की लहर है

ऐ मोहब्बत मैं तिरी बेताबियों को क्या करूँ
बढ़ के चश्म-ए-यार से बरहम मिज़ाज-ए-दहर है

भर रहा हूँ किस शराब-ए-दर्द से जाम-ए-ग़ज़ल
रूह में कुचले हुए जज़्बात की इक नहर है

ज़िंदगी से भाग कर ‘प्रकाश’ मैं जाऊँ कहाँ
घर के बाहर क़हर है और घर के अंदर ज़हर है

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वही ज़िल्ले-सुब्हानी सामने है

लो अब सारी कहानी सामने है
तुम्हारी ही जु़बानी, सामने है

तुम्हारे अश्व खुद निकले हैं टट्टू
अगरचे राजधानी सामने है

गिराए तख़्त, उछले ताज फिर भी
वही ज़िल्ले-सुब्हानी सामने है

मेरी उरियानियां भी कम पड़ेंगीं
बशर इक ख़ानदानी सामने है

तेरे माथे पे फिर बलवों के टीके-
बुज़ुर्गों की निशानी सामने है !

अभी जम्हूरियत की उम्र क्या है
समूची ज़िन्दगानी सामने है

(ज़िल्ले-सुब्हानी=शासक-प्रवृत्ति, उरियानी=नंगापन, बलवे=दंगे, जम्हूरियत=लोकतंत्र, बशर=व्यक्ति)

-संजय ग्रोवर

147-A, Pocket-A, Dilshad Garden, Delhi-110095

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ye zulf agar khul jaye

ये ज़ुल्फ़ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा
इस रात की तक़दीर सँवर जाए तो अच्छा

जिस तरह से थोड़ी सी तिरे साथ कटी है
बाक़ी भी उसी तरह गुज़र जाए तो अच्छा

दुनिया की निगाहों में भला क्या है बुरा क्या
ये बोझ अगर दिल से उतर जाए तो अच्छा

वैसे तो तुम्हीं ने मुझे बरबाद किया है
इल्ज़ाम किसी और के सर जाए तो अच्छा

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aaye kuch abr kuch sharab

आए कुछ अब्र कुछ शराब आए
इस के बा’द आए जो अज़ाब आए

बाम-ए-मीना से माहताब उतरे
दस्त-ए-साक़ी में आफ़्ताब आए

हर रग-ए-ख़ूँ में फिर चराग़ाँ हो
सामने फिर वो बे-नक़ाब आए

उम्र के हर वरक़ पे दिल की नज़र
तेरी मेहर-ओ-वफ़ा के बाब आए

कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब
आज तुम याद बे-हिसाब आए

न गई तेरे ग़म की सरदारी
दिल में यूँ रोज़ इंक़लाब आए

जल उठे बज़्म-ए-ग़ैर के दर-ओ-बाम
जब भी हम ख़ानुमाँ-ख़राब आए

इस तरह अपनी ख़ामुशी गूँजी
गोया हर सम्त से जवाब आए

‘फ़ैज़’ थी राह सर-ब-सर मंज़िल
हम जहाँ पहुँचे कामयाब आए

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ye mohabbat tere anjaam pe rona aaya

ऐ मोहब्बत तिरे अंजाम पे रोना आया
जाने क्यूँ आज तिरे नाम पे रोना आया

यूँ तो हर शाम उमीदों में गुज़र जाती है
आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया

कभी तक़दीर का मातम कभी दुनिया का गिला
मंज़िल-ए-इश्क़ में हर गाम पे रोना आया

मुझ पे ही ख़त्म हुआ सिलसिला-ए-नौहागरी
इस क़दर गर्दिश-ए-अय्याम पे रोना आया

जब हुआ ज़िक्र ज़माने में मोहब्बत का ‘शकील’
मुझ को अपने दिल-ए-नाकाम पे रोना आया

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gulo me rang bare

गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

क़फ़स उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

कभी तो सुब्ह तिरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्क-बार चले

बड़ा है दर्द का रिश्ता ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आएँगे ग़म-गुसार चले

जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब-ए-हिज्राँ
हमारे अश्क तिरी आक़िबत सँवार चले

हुज़ूर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब
गिरह में ले के गरेबाँ का तार तार चले

मक़ाम ‘फ़ैज़’ कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले

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jala ke mishleh jaha

जला के मिशअल-ए-जाँ हम जुनूँ-सिफ़ात चले
जो घर को आग लगाए हमारे साथ चले

दयार-ए-शाम नहीं मंज़िल-ए-सहर भी नहीं
अजब नगर है यहाँ दिन चले न रात चले

हमारे लब न सही वो दहान-ए-ज़ख़्म सही
वहीं पहुँचती है यारो कहीं से बात चले

सुतून-ए-दार पे रखते चलो सरों के चराग़
जहाँ तलक ये सितम की सियाह रात चले

हुआ असीर कोई हम-नवा तो दूर तलक
ब-पास-ए-तर्ज़-ए-नवा हम भी साथ साथ चले

बचा के लाए हम ऐ यार फिर भी नक़्द-ए-वफ़ा
अगरचे लुटते रहे रहज़नों के हाथ चले

फिर आई फ़स्ल कि मानिंद बर्ग-ए-आवारा
हमारे नाम गुलों के मुरासलात चले

क़तार-ए-शीशा है या कारवान-ए-हम-सफ़राँ
ख़िराम-ए-जाम है या जैसे काएनात चले

भुला ही बैठे जब अहल-ए-हरम तो ऐ ‘मजरूह’
बग़ल में हम भी लिए इक सनम का हाथ चले

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batan ki sarjami se ishq

वतन की सर-ज़मीं से इश्क़ ओ उल्फ़त हम भी रखते हैं
खटकती जो रहे दिल में वो हसरत हम भी रखते हैं

ज़रूरत हो तो मर मिटने की हिम्मत हम भी रखते हैं
ये जुरअत ये शुजाअत ये बसालत हम भी रखते हैं

ज़माने को हिला देने के दावे बाँधने वालो
ज़माने को हिला देने की ताक़त हम भी रखते हैं

बला से हो अगर सारा जहाँ उन की हिमायत पर
ख़ुदा-ए-हर-दो-आलम की हिमायत हम भी रखते हैं

बहार-ए-गुलशन-ए-उम्मीद भी सैराब हो जाए
करम की आरज़ू ऐ अब्र-ए-रहमत हम भी रखते हैं

गिला ना-मेहरबानी का तो सब से सुन लिया तुम ने
तुम्हारी मेहरबानी की शिकायत हम भी रखते हैं

भलाई ये कि आज़ादी से उल्फ़त तुम भी रखते हो
बुराई ये कि आज़ादी से उल्फ़त हम भी रखते हैं

हमारा नाम भी शायद गुनहगारों में शामिल हो
जनाब-ए-‘जोश’ से साहब सलामत हम भी रखते हैं

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samunder me utarta ho

समुंदर में उतरता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं
तिरी आँखों को पढ़ता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

तुम्हारा नाम लिखने की इजाज़त छिन गई जब से
कोई भी लफ़्ज़ लिखता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

तिरी यादों की ख़ुश्बू खिड़कियों में रक़्स करती है
तिरे ग़म में सुलगता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

न जाने हो गया हूँ इस क़दर हस्सास मैं कब से
किसी से बात करता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

मैं सारा दिन बहुत मसरूफ़ रहता हूँ मगर जूँही
क़दम चौखट पे रखता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

हर इक मुफ़्लिस के माथे पर अलम की दास्तानें हैं
कोई चेहरा भी पढ़ता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

बड़े लोगों के ऊँचे बद-नुमा और सर्द महलों को
ग़रीब आँखों से तकता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

तिरे कूचे से अब मेरा तअ’ल्लुक़ वाजिबी सा है
मगर जब भी गुज़रता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

हज़ारों मौसमों की हुक्मरानी है मिरे दिल पर
‘वसी’ मैं जब भी हँसता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं

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