Zindagi jab imtehan leti hai

ज़िंदगी जब भी तिरी बज़्म में लाती है हमें
ये ज़मीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें

सुर्ख़ फूलों से महक उठती हैं दिल की राहें
दिन ढले यूँ तिरी आवाज़ बुलाती है हमें

याद तेरी कभी दस्तक कभी सरगोशी से
रात के पिछले-पहर रोज़ जगाती है हमें

हर मुलाक़ात का अंजाम जुदाई क्यूँ है
अब तो हर वक़्त यही बात सताती है हमें

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main jo safar se guzra

मैं जो गुज़रा सलाम करने लगा
पेड़ मुझ से कलाम करने लगा

देख ऐ नौ-जवान मैं तुझ पर
अपनी चाहत तमाम करने लगा

क्यूँ किसी शब चराग़ की ख़ातिर
अपनी नींदें हराम करने लगा

सोचता हूँ दयार-ए-बे-परवा
क्यूँ मिरा एहतिराम करने लगा

उम्र-ए-यक-रोज़ कम नहीं ‘सरवत’
क्यूँ तलाश-ए-दवाम करने लगा

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Dil ko kya ho gya

दिल को क्या हो गया ख़ुदा जाने
क्यूँ है ऐसा उदास क्या जाने

अपने ग़म में भी उस को सरफ़ा है
न खिला जाने वो न खा जाने

इस तजाहुल का क्या ठिकाना है
जान कर जो न मुद्दआ’ जाने

कह दिया मैं ने राज़-ए-दिल अपना
उस को तुम जानो या ख़ुदा जाने

क्या ग़रज़ क्यूँ इधर तवज्जोह हो
हाल-ए-दिल आप की बला जाने

जानते जानते ही जानेगा
मुझ में क्या है अभी वो क्या जाने

क्या हम उस बद-गुमाँ से बात करें
जो सताइश को भी गिला जाने

तुम न पाओगे सादा-दिल मुझ सा
जो तग़ाफ़ुल को भी हया जाने

है अबस जुर्म-ए-इश्क़ पर इल्ज़ाम
जब ख़ता-वार भी ख़ता जाने

नहीं कोताह दामन-ए-उम्मीद
आगे अब दस्त-ए-ना-रसा जाने

जो हो अच्छा हज़ार अच्छों का
वाइ’ज़ उस बुत को तू बुरा जाने

की मिरी क़द्र मिस्ल-ए-शाह-ए-दकन
किसी नव्वाब ने न राजा ने

उस से उट्ठेगी क्या मुसीबत-ए-इश्क़
इब्तिदा को जो इंतिहा जाने

‘दाग़’ से कह दो अब न घबराओ
काम अपना बता हुआ जाने

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meri umeed ka suraj hai tu

तमाम रंग जहाँ इल्तिजा के रक्खे थे
लहू लहू वहीं मंज़र अना के रक्खे थे

करम के साथ सितम भी बला के रक्खे थे
हर एक फूल ने काँटे छुपा के रक्खे थे

सुकून चेहरे पे हर ख़ुश अदा के रक्खे थे
समुंदरों ने भी तेवर छुपा के रक्खे थे

मिरी उम्मीद का सूरज कि तेरी आस का चाँद
दिए तमाम ही रुख़ पर हवा के रक्खे थे

वो जिस की पाक उड़ानों के मो’तरिफ़ थे सब
जले हुए वही शहपर हया के रक्खे थे

बना यज़ीद ज़माना जो मैं हुसैन बना
कि ज़ुल्म बाक़ी अभी कर्बला के रक्खे थे

उन्हीं को तोड़ गया है ख़ुलूस का चेहरा
जो चंद आइने हम ने बचा के रक्खे थे

यूँही किसी की कोई बंदगी नहीं करता
बुतों के चेहरों पे तेवर ख़ुदा के रक्खे थे

गए हैं बाब-ए-रसा तक वो दस्तकें बन कर
‘ज़फ़र’ जो हाथ पे आँसू दुआ के रक्खे थे

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Ab intizaar nhi hota

नवेद-ए-आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार भी तो नहीं
ये बे-दिली है कि अब इंतिज़ार भी तो नहीं

जो भूल जाए कोई शग़्ल-ए-जाम-ओ-मीना में
ग़म-ए-हबीब ग़म-ए-रोज़गार भी तो नहीं

मरीज़-ए-बादा-ए-इशरत ये इक जहाँ क्यूँ है
सुरूर-ए-बादा ब-कद्र-ए-ख़ुमार भी तो नहीं

मता-ए-सब्र-ओ-सुकूँ जिस ने दिल से छीन लिया
वो दिल-नवाज़ अदा-आश्कार भी तो नहीं

क़फ़स में जी मिरा लग तो नहीं गया हमदम
कि अब वो नाला-ए-बे-इख़्तयार भी तो नहीं

है ऐन वस्ल में भी पुर-ख़रोश-ए-परवाना
सुकून-ए-क़ल्ब ब-आग़ोश-ए-यार भी तो नहीं

निगाह-ए-नाज़ कि बेगाना-ए-मुहब्बत है
सितम तो ये है कि बे-गाना-वार भी तो नहीं

वो एक रहबर-ए-नादाँ कि जिस को इश्क़ कहें
डुबो के कश्ती-ए-दिल शर्मसार भी तो नहीं

जुनूँ को दर्स-ए-अमल दे के क्या करे कोई
ब-क़द्र-ए-हौसला-ए-दिल बहार भी तो नहीं

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Apni duniya ki kahani ho main

अपनी उजड़ी हुई दुनिया की कहानी हूँ मैं
एक बिगड़ी हुई तस्वीर-ए-जवानी हूँ मैं

आग बन कर जो कभी दिल में निहाँ रहता था
आज दुनिया में उसी ग़म की निशानी हूँ मैं

हाए क्या क़हर है मरहूम जवानी की याद
दिल से कहती है कि ख़ंजर की रवानी हूँ मैं

आलम-अफ़रोज़ तपिश तेरे लिए लाया हूँ
ऐ ग़म-ए-इश्क़ तिरा अहद-ए-जवानी हूँ मैं

चर्ख़ है नग़्मागर अय्याम हैं नग़्मे ‘अख़्तर’
दास्ताँ-गो है ग़म-ए-दहर कहानी हूँ मैं

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Khoshbo jaise log mile mere afsane me

ख़ुशबू जैसे लोग मिले अफ़्साने में
एक पुराना ख़त खोला अनजाने में

शाम के साए बालिश्तों से नापे हैं
चाँद ने कितनी देर लगा दी आने में

रात गुज़रते शायद थोड़ा वक़्त लगे
धूप उन्डेलो थोड़ी सी पैमाने में

जाने किस का ज़िक्र है इस अफ़्साने में
दर्द मज़े लेता है जो दोहराने में

दिल पर दस्तक देने कौन आ निकला है
किस की आहट सुनता हूँ वीराने में

हम इस मोड़ से उठ कर अगले मोड़ चले
उन को शायद उम्र लगेगी आने में

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Anzam-e-mohabbat kya hai

अंजाम-ए-मोहब्बत से मैं बेगाना नहीं हूँ
दीवाना बना फिरता हूँ दीवाना नहीं हूँ

दम भर में जो हो ख़त्म वो अफ़्साना नहीं हूँ
इंसान हूँ इंसान मैं परवाना नहीं हूँ

साक़ी तिरी आँखों को सलामत रक्खे अल्लाह
अब तक तो मैं शर्मिंदा-ए-पैमाना नहीं हूँ

हो बार न ख़ातिर पे तो नासेह कहूँ इक बात
समझा लें जिसे आप वो दीवाना नहीं हूँ

बर्बादियों का ग़म नहीं ग़म है तो ये ग़म है
मिट कर भी मैं ख़ाक-ए-दर-ए-जानाना नहीं हूँ

तौबा तिरे दामन पे जुनूँ-ख़ेज़ निगाहें
हूँ तो मगर अब इतना भी दीवाना नहीं हूँ

सब कुछ मिरे साक़ी ने दिया है मुझे ‘मंज़र’
मोहताज-ए-मय-ओ-शीशा-ओ-पैमाना नहीं हूँ

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door kisi ko yaad aata hu main

दूर किसी को याद आता हूँ रात मुझे पागल करती है
घर से दूर निकल जाता हूँ रात मुझे पागल करती है

इक अनजाने शहर में देखूँ शक्ल कोई जानी-पहचानी
उस की ओर खिंचा जाता हूँ रात मुझे पागल करती है

दूर देस इक घर है अपना जैसे कोई इक सुंदर सपना
सपने में ख़ुद को पाता हूँ रात मुझे पागल करती है

‘पाशी’ दिल को चैन न आए घेरें उन की याद के साए
रात आए तो घबराता हूँ रात मुझे पागल करती है

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Ek pal me kya kuch badal gya

इक पल में क्या कुछ बदल गया जब बे-ख़बरों को ख़बर हुई
मैं तंहाई में छुपा रहा जब मुझ पर उस की नज़र हुई

इक चाँद चमक कर चला गया फिर कितनी घड़ियाँ गुज़र गईं
मुझ को तो कुछ भी ख़बर न थी कब रात हुई कब सहर हुई

थी हुस्न की छब इक अजब अदा जब फूल सा चेहरा महक उठा
वो मंज़र मुझ को जचा बहुत फिर उम्र उसी में बसर हुई

आना भी तेरा ग़ज़ब हुआ इस शहर का मंज़र बदल गया
भौंचाल सा आया गली गली हर चीज़ इधर से उधर हुई

ये रोग लगा है अजब हमें जो जान भी ले कर टला नहीं
हर एक दवा बे-असर गई हर एक दुआ बे-असर हुई

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