या सच

या तो मैं सच कहता हूं
या फिर चुप ही रहता हूं 

बहुत नहीं तैरा, लेकिन
ख़ुश हूं, कम ही बहता हूं

डरते लोगों से डर कर
सहमा-सहमा रहता हूं

बाहर दीवारें चुन कर
भीतर-भीतर ढहता हूं

कुछ अनकही भी कह जाऊं
इसी लिए सब सहता हूं

-संजय ग्रोवर

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Ghazal

बिसात-ए-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा ख़ूँ वो भी
सो रहता है ब-अंदाज़-ए-चकीदन सर-निगूँ वो भी

रहे उस शोख़ से आज़ुर्दा हम चंदे तकल्लुफ़ से
तकल्लुफ़ बरतरफ़ था एक अंदाज़-ए-जुनूँ वो भी

ख़याल-ए-मर्ग कब तस्कीं दिल-ए-आज़ुर्दा को बख़्शे
मिरे दाम-ए-तमन्ना में है इक सैद-ए-ज़बूँ वो भी

न करता काश नाला मुझ को क्या मालूम था हमदम
कि होगा बाइस-ए-अफ़्ज़ाइश-ए-दर्द-ए-दरूँ वो भी

न इतना बुर्रिश-ए-तेग़-ए-जफ़ा पर नाज़ फ़रमाओ
मिरे दरिया-ए-बे-ताबी में है इक मौज-ए-ख़ूँ वो भी

मय-ए-इशरत की ख़्वाहिश साक़ी-ए-गर्दूं से क्या कीजे
लिए बैठा है इक दो चार जाम-ए-वाज़-गूँ वो भी

मिरे दिल में है ‘ग़ालिब’ शौक़-ए-वस्ल ओ शिकवा-ए-हिज्राँ
ख़ुदा वो दिन करे जो उस से मैं ये भी कहूँ वो भी

मुझे मालूम है जो तू ने मेरे हक़ में सोचा है
कहीं हो जाए जल्द ऐ गर्दिश-ए-गर्दून-ए-दूँ वो भी

नज़र राहत पे मेरी कर न वा’दा शब के आने का
कि मेरी ख़्वाब-बंदी के लिए होगा फ़ुसूँ वो भी

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Agar kuchh hosh hum rakhte

अगर कुछ होश हम रखते तो मस्ताने हुए होते
पहुँचते जा लब-ए-साक़ी कूँ पैमाने हुए होते

अबस इन शहरियों में वक़्त अपना हम किए ज़ाए
किसी मजनूँ की सोहबत बैठ दीवाने हुए होते

न रखता मैं यहाँ गर उल्फ़त-ए-लैला निगाहों कूँ
तो मजनूँ की तरह आलम में अफ़्साने हुए होते

अगर हम आश्ना होते तिरी बेगाना-ख़ूई सीं
बरा-ए-मस्लहत ज़ाहिर में बेगाने हुए होते

ज़ि-बस काफ़िर-अदायों ने चलाए संग-ए-बे-रहमी
अगर सब जम्अ करता मैं तो बुत-ख़ाने हुए होते

न करता ज़ब्त अगर मैं गिर्या-ए-बे-इख़्तियारी कूँ
गुज़रता जिस तरफ़ ये पूर वीराने हुए होते

नज़र चश्म-ए-ख़रीदारी सीं करता दिलबर-ए-नादाँ
अगर क़तरे मिरे आँसू के दुरदाने हुए होते

मोहब्बत के नशे में ख़ास इंसाँ वास्ते वर्ना
फ़रिश्ते ये शराबें पी कि मस्ताने हुए होते

एवज़ अपने गरेबाँ के किसी की ज़ुल्फ़ हात आती
हमारे हात के पंजे मगर शाने हुए होते

तिरी शमशीर-ए-अबरू सीं हुए सन्मुख व इल्ला न
अजल की तेग़ सीं ज्यूँ आरा दंदाने हुए होते

मज़ा जो आशिक़ी में है सो माशूक़ी में हरगिज़ नीं
‘सिराज’ अब हो चुके अफ़सोस परवाने हुए होते

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Mujhse kaha jibril-e-junun ne

मुझ से कहा जिब्रील-ए-जुनूँ ने ये भी वही-ए-इलाही है
मज़हब तो बस मज़हब-ए-दिल है बाक़ी सब गुमराही है

वो जो हुए फ़िरदौस-बदर तक़्सीर थी वो आदम की मगर
मेरा अज़ाब-ए-दर-बदरी मेरी ना-कर्दा-गुनाही है

संग तो कोई बढ़ के उठाओ शाख़-ए-समर कुछ दूर नहीं
जिस को बुलंदी समझे हो उन हाथों की कोताही है

फिर कोई मंज़र फिर वही गर्दिश क्या कीजे ऐ कू-ए-निगार
मेरे लिए ज़ंजीर-ए-गुलू मेरी आवारा-निगाही है

बहर-ए-ख़ुदा ख़ामोश रहो बस देखते जाओ अहल-ए-नज़र
क्या लग़्ज़ीदा-क़दम हैं उस के क्या दुज़दीदा-निगाही है

दीद के क़ाबिल है तो सही ‘मजरूह’ तिरी मस्ताना-रवी
गर्द-ए-हवा है रख़्त-ए-सफ़र रस्ते का शजर हम-राही है

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Ao ab mil ke gulistan ko

आओ अब मिल के गुलिस्ताँ को गुल्सिताँ कर दें
हर गुल-ओ-लाला को रक़्साँ ओ ग़ज़ल-ख़्वाँ कर दें

अक़्ल है फ़ित्ना-ए-बेदार सुला दें इस को
इश्क़ की जिंस-ए-गिराँ-माया को अर्ज़ां कर दें

दस्त-ए-वहशत में ये अपना ही गरेबाँ कब तक
ख़त्म अब सिलसिला-ए-चाक-ए-गरेबाँ कर दें

ख़ून-ए-आदम पे कोई हर्फ़ न आने पाए
जिन्हें इंसाँ नहीं कहते उन्हें इंसाँ कर दें

दामन-ए-ख़ाक पे ये ख़ून के छींटे कब तक
इन्हीं छींटों को बहिश्त-ए-गुल-ओ-रैहाँ कर दें

माह ओ अंजुम भी हों शर्मिंदा-ए-तनवीर ‘मजाज़’
दश्त-ए-ज़ुल्मात में इक ऐसा चराग़ाँ कर दें

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kuchh na kuchh ishq ki tasir ka iqrar to hai

कुछ न कुछ इश्क़ की तासीर का इक़रार तो है
उस का इल्ज़ाम-ए-तग़ाफ़ुल पे कुछ इंकार तो है

हर फ़रेब-ए-ग़म-ए-दुनिया से ख़बर-दार तो है
तेरा दीवाना किसी काम में हुश्यार तो है

देख लेते हैं सभी कुछ तिरे मुश्ताक़-ए-जमाल
ख़ैर दीदार न हो हसरत-ए-दीदार तो है

माअ’रके सर हों उसी बर्क़-ए-नज़र से ऐ हुस्न
ये चमकती हुई चलती हुइ तलवार तो है

सर पटकने को पटकता है मगर रुक रुक कर
तेरे वहशी को ख़याल-ए-दर-ओ-दीवार तो है

इश्क़ का शिकवा-ए-बेजा भी न बे-कार गया
न सही जौर मगर जौर का इक़रार तो है

तुझ से हिम्मत तो पड़ी इश्क़ को कुछ कहने की
ख़ैर शिकवा न सही शुक्र का इज़हार तो है

इस में भी राबता-ए-ख़ास की मिलती है झलक
ख़ैर इक़रार-ए-मोहब्बत न हो इंकार तो है

क्यूँ झपक जाती है रह रह के तिरी बर्क़-ए-निगाह
ये झिजक किस लिए इक कुश्ता-ए-दीदार तो है

कई उन्वान हैं मम्नून-ए-करम करने के
इश्क़ में कुछ न सही ज़िंदगी बे-कार तो है

सहर-ओ-शाम सर-ए-अंजुमन-ए-नाज़ न हो
जल्वा-ए-हुस्न तो है इश्क़-ए-सियहकार तो है

चौंक उठते हैं ‘फ़िराक़’ आते ही उस शोख़ का नाम
कुछ सरासीमगी-ए-इश्क़ का इक़रार तो है

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kai bar is ka daman bhar diya

कई बार इस का दामन भर दिया हुस्न-ए-दो-आलम से
मगर दिल है कि इस की ख़ाना-वीरानी नहीं जाती

कई बार इस की ख़ातिर ज़र्रे ज़र्रे का जिगर चेरा
मगर ये चश्म-ए-हैराँ जिस की हैरानी नहीं जाती

नहीं जाती मता-ए-लाल-ओ-गौहर की गिराँ-याबी
मता-ए-ग़ैरत-ओ-ईमाँ की अर्ज़ानी नहीं जाती

मिरी चश्म-ए-तन-आसाँ को बसीरत मिल गई जब से
बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती

सर-ए-खुसरव से नाज़-ए-कज-कुलाही छिन भी जाता है
कुलाह-ए-ख़ुसरवी से बू-ए-सुल्तानी नहीं जाती

ब-जुज़ दीवानगी वाँ और चारा ही कहो क्या है
जहाँ अक़्ल ओ ख़िरद की एक भी मानी नहीं जाती

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Usne sukut-e-shab mein

उस ने सुकूत-ए-शब में भी अपना पयाम रख दिया
हिज्र की रात बाम पर माह-ए-तमाम रख दिया

आमद-ए-दोस्त की नवेद कू-ए-वफ़ा में आम थी
मैं ने भी इक चराग़ सा दिल सर-ए-शाम रख दिया

शिद्दत-ए-तिश्नगी में भी ग़ैरत-ए-मय-कशी रही
उस ने जो फेर ली नज़र मैं ने भी जाम रख दिया

उस ने नज़र नज़र में ही ऐसे भले सुख़न कहे
मैं ने तो उस के पाँव में सारा कलाम रख दिया

देखो ये मेरे ख़्वाब थे देखो ये मेरे ज़ख़्म हैं
मैं ने तो सब हिसाब-ए-जाँ बर-सर-ए-आम रख दिया

अब के बहार ने भी कीं ऐसी शरारतें कि बस
कब्क-ए-दरी की चाल में तेरा ख़िराम रख दिया

जो भी मिला उसी का दिल हल्क़ा-ब-गोश-ए-यार था
उस ने तो सारे शहर को कर के ग़ुलाम रख दिया

और ‘फ़राज़’ चाहिएँ कितनी मोहब्बतें तुझे
माओं ने तेरे नाम पर बच्चों का नाम रख दिया

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Us ka Khiram dekh ke

उस का ख़िराम देख के जाया न जाएगा
ऐ कब्क फिर बहाल भी आया न जाएगा

हम कशतगान-ए-इशक़ हैं अब्रू-ओ-चश्म-ए-यार
सर से हमारे तेग़ का साया न जाएगा

हम रहरवान-ए-राह-ए-फ़ना हैं बिरंग-ए-उम्र
जावेंगे ऐसे खोज भी पाया न जाएगा

फोड़ा सा सारी रात जो पकता रहेगा दिल
तो सुब्ह तक तो हाथ लगाया न जाएगा

अपने शहीद-ए-नाज़ से बस हाथ उठा कि फिर
दीवान-ए-हश्र में उसे लाया न जाएगा

अब देख ले कि सीना भी ताज़ा हुआ है चाक
फिर हम से अपना हाल दिखाया न जाएगा

हम बे-ख़ुद उन महफ़िल-ए-तस्वीर अब गए
आइंदा हम से आप में आया न जाएगा

गो बे-सुतूँ को टाल दे आगे से कोहकन
संग-गरान-ए-इश्क़ उठाया न जाएगा

हम तो गए थे शैख़ को इंसान बूझ कर
पर अब से ख़ानक़ाह में जाया न जाएगा

याद उस की इतनी ख़ूब नहीं ‘मीर’ बाज़ आ
नादान फिर वो जी से भुलाया न जाएगा

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Kabhi ai haqiqat-e-muntazar

कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मिरी जबीन-ए-नियाज़ में

तरब-आशना-ए-ख़रोश हो तो नवा है महरम-ए-गोश हो
वो सरोद क्या कि छुपा हुआ हो सुकूत-ए-पर्दा-ए-साज़ में

तू बचा बचा के न रख इसे तिरा आइना है वो आइना
कि शिकस्ता हो तो अज़ीज़-तर है निगाह-ए-आइना-साज़ में

दम-ए-तौफ़ किरमक-ए-शम्अ ने ये कहा कि वो असर-ए-कुहन
न तिरी हिकायत-ए-सोज़ में न मिरी हदीस-ए-गुदाज़ में

न कहीं जहाँ में अमाँ मिली जो अमाँ मिली तो कहाँ मिली
मिरे जुर्म-ए-ख़ाना-ख़राब को तिरे अफ़्व-ए-बंदा-नवाज़ में

न वो इश्क़ में रहीं गर्मियाँ न वो हुस्न में रहीं शोख़ियाँ
न वो ग़ज़नवी में तड़प रही न वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-अयाज़ मैं

मैं जो सर-ब-सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा
तिरा दिल तो है सनम-आश्ना तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में

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