Waseem Barelvi Shayari

हर साँस किसी मरहम से कम ना थी
मैं जैसे कोई ज़ख़्म था भरता चला गया

ये सोच कर मैं उसके बराबर नही गया
दरया के पास कोई समंदर नही गया

आते आते मिरा नाम सा रह गया
उस के होंटों पे कुछ काँपता रह गया

अपनी इस आदत पे ही इक रोज़ मारे जाएँगे
कोई दर खोले न खोले हम पुकारे जाएँगे

आज पी लेने दे जी लेने दे मुझ को साक़ी
कल मिरी रात ख़ुदा जाने कहाँ गुज़रेगी

इन्हें तो ख़ाक में मिलना ही था कि मेरे थे
ये अश्क कौन से ऊँचे घराने वाले थे

इसी ख़याल से पलकों पे रुक गए आँसू
तिरी निगाह को शायद सुबूत-ए-ग़म न मिले

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Ishq Mein Zillat Hui

इश्क़ में ज़िल्लत हुई ख़िफ़्फ़त हुई तोहमत हुई
आख़िर आख़िर जान दी यारों ने ये सोहबत हुई

अक्स उस बे-दीद का तो मुत्तसिल पड़ता था सुब्ह
दिन चढ़े क्या जानूँ आईने की क्या सूरत हुई

लौह-ए-सीना पर मिरी सौ नेज़ा-ए-ख़त्ती लगे
ख़स्तगी इस दिल-शिकस्ता की इसी बाबत हुई

खोलते ही आँखें फिर याँ मूँदनी हम को पड़ीं
दीद क्या कोई करे वो किस क़दर मोहलत हुई

पाँव मेरा कल्बा-ए-अहज़ाँ में अब रहता नहीं
रफ़्ता रफ़्ता उस तरफ़ जाने की मुझ को लत हुई

मर गया आवारा हो कर मैं तो जैसे गर्द-बाद
पर जिसे ये वाक़िआ पहुँचा उसे वहशत हुई

शाद ओ ख़ुश-ताले कोई होगा किसू को चाह कर
मैं तो कुल्फ़त में रहा जब से मुझे उल्फ़त हुई

दिल का जाना आज कल ताज़ा हुआ हो तो कहूँ
गुज़रे उस भी सानेहे को हम-नशीं मुद्दत हुई

शौक़-ए-दिल हम ना-तवानों का लिखा जाता है कब
अब तलक आप ही पहुँचने की अगर ताक़त हुई

क्या कफ़-ए-दस्त एक मैदाँ था बयाबाँ इश्क़ का
जान से जब उस में गुज़रे तब हमें राहत हुई

यूँ तो हम आजिज़-तरीन-ए-ख़ल्क़-ए-आलम हैं वले
देखियो क़ुदरत ख़ुदा की गर हमें क़ुदरत हुई

गोश ज़द चट-पट ही मरना इश्क़ में अपने हुआ
किस को इस बीमारी-ए-जाँ-काह से फ़ुर्सत हुई

बे-ज़बाँ जो कहते हैं मुझ को सो चुप रह जाएँगे
मारके में हश्र के गर बात की रुख़्सत हुई

हम न कहते थे कि नक़्श उस का नहीं नक़्क़ाश सहल
चाँद सारा लग गया तब नीम-रुख़ सूरत हुई

इस ग़ज़ल पर शाम से तो सूफ़ियों को वज्द था
फिर नहीं मालूम कुछ मज्लिस की क्या हालत हुई

कम किसू को ‘मीर’ की मय्यत की हाथ आई नमाज़
ना’श पर उस बे-सर-ओ-पा की बला कसरत हुई

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Aab Aankhon Mein

अब आँखों में ख़ूँ दम-ब-दम देखते हैं
न पूछो जो कुछ रंग हम देखते हैं

जो बे-अख़्तियारी यही है तो क़ासिद
हमीं आ के उस के क़दम देखते हैं

गहे दाग़ रहता है दिल गा जिगर ख़ूँ
उन आँखों से क्या क्या सितम देखते हैं

अगर जान आँखों में उस बिन है तो हम
अभी और भी कोई दम देखते हैं

लिखें हाल क्या उस को हैरत से हम तो
गहे काग़ज़ ओ गह क़लम देखते हैं

वफ़ा-पेशगी क़ैस तक थी भी कुछ कुछ
अब उस तौर के लोग कम देखते हैं

कहाँ तक भला रोओगे ‘मीर’-साहिब
अब आँखों के गिर्द इक वरम देखते हैं

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Dekha hai jis ne

देखा है जिस ने यार के रुख़्सार की तरफ़
हरगिज़ न जावे सैर कूँ गुलज़ार की तरफ़

आईना-दिल की चश्म में नूर जमाल दोस्त
रौशन हुआ है हर दर-ओ-दीवार की तरफ़

मंज़ूर है सलामती-ए-ख़ूँ अगर तुझे
मत देख उस की नर्गिस-ए-बीमार की तरफ़

वहाँ नहीं बग़ैर जौहर-ए-शमशीर ख़ूँ-बहा
ज़ाहिद न जा वो ज़ालिम-ए-खूँ-ख़्वार की तरफ़

है दिल कूँ अज़्म-ए-चौक उमीद-ए-विसाल पर
दीवाना का ख़याल है बाज़ार की तरफ़

क्या पूछते हो तुम कि तिरा दिल किधर गया
दिल का मकाँ कहाँ? यही दिलदार की तरफ़

परवाना कूँ नहीं है मगर ख़ौफ़-ए-जाँ ‘सिराज’
नाहक़ चला है शोला-ए-दीदार की तरफ़

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Ye zulf agar khul ke

Ye zulf agar khul ke bikhar jaa.e to achchhā
is raat kī taqdīr sañvar jaa.e to achchhā
jis tarah se thoḌī sī tire saath kaTī hai
baaqī bhī usī tarah guzar jaa.e to achchhā

duniyā kī nigāhoñ meñ bhalā kyā hai burā kyā
ye bojh agar dil se utar jaa.e to achchhā
vaise to tumhīñ ne mujhe barbād kiyā hai
ilzām kisī aur ke sar jaa.e to achchhā

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Bahut ghutan hai koi surat

बहुत घुटन है कोई सूरत-ए-बयाँ निकले
अगर सदा न उठे कम से कम फ़ुग़ाँ निकले
फ़क़ीर-ए-शहर के तन पर लिबास बाक़ी है
अमीर-ए-शहर के अरमाँ अभी कहाँ निकले

हक़ीक़तें हैं सलामत तो ख़्वाब बहुतेरे
मलाल क्यूँ हो कि कुछ ख़्वाब राएगाँ निकले
उधर भी ख़ाक उड़ी है इधर भी ख़ाक उड़ी
जहाँ जहाँ से बहारों के कारवाँ निकले

सितम के दौर में हम अहल-ए-दिल ही काम आए
ज़बाँ पे नाज़ था जिन को वो बे-ज़बाँ निकले

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Akayed bahem hai majhab khyal

अक़ाएद वहम हैं मज़हब ख़याल-ए-ख़ाम है साक़ी
अज़ल से ज़ेहन-ए-इंसाँ बस्ता-ए-औहाम है साक़ी

हक़ीक़त-आश्नाई अस्ल में गुम-कर्दा राही है
उरूस-ए-आगही परवुर्दा-ए-इब्हाम है साक़ी
मुबारक हो ज़ईफ़ी को ख़िरद की फ़लसफ़ा-रानी
जवानी बे-नियाज़-ए-इबरत-ए-अंजाम है साक़ी

हवस होगी असीर-ए-हल्क़ा-ए-नेक-ओ-बद-ए-आलम
मोहब्बत मावरा-ए-फ़िक्र-ए-नंग-ओ-नाम है साक़ी
अभी तक रास्ते के पेच-ओ-ख़म से दिल धड़कता है
मिरा ज़ौक़-ए-तलब शायद अभी तक ख़ाम है साक़ी

वहाँ भेजा गया हूँ चाक करने पर्दा-ए-शब को
जहाँ हर सुब्ह के दामन पे अक्स-ए-शाम है साक़ी
मिरे साग़र में मय है और तिरे हाथों में बरबत है
वतन की सर-ज़मीं में भूक से कोहराम है साक़ी

ज़माना बरसर-ए-पैकार है पुर-हौल शो’लों से
तिरे लब पर अभी तक नग़्मा-ए-ख़य्याम है साक़ी

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Apna dil pesh karun

अपना दिल पेश करूँ अपनी वफ़ा पेश करूँ
कुछ समझ में नहीं आता तुझे क्या पेश करूँ
तेरे मिलने की ख़ुशी में कोई नग़्मा छेड़ूँ
या तिरे दर्द-ए-जुदाई का गिला पेश करूँ

मेरे ख़्वाबों में भी तू मेरे ख़यालों में भी तू
कौन सी चीज़ तुझे तुझ से जुदा पेश करूँ
जो तिरे दिल को लुभाए वो अदा मुझ में नहीं
क्यूँ न तुझ को कोई तेरी ही अदा पेश करूँ

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Ahele dil or bhi hai

अहल-ए-दिल और भी हैं अहल-ए-वफ़ा और भी हैं
एक हम ही नहीं दुनिया से ख़फ़ा और भी हैं
हम पे ही ख़त्म नहीं मस्लक-ए-शोरीदा-सरीचाक-ए-दिल और भी
हैं चाक-ए-क़बा और भी हैं
क्या हुआ गर मिरे यारों की ज़बानें चुप हैं

मेरे शाहिद मिरे यारों के सिवा और भी हैं
सर सलामत है तो क्या संग-ए-मलामत की कमी
जान बाक़ी है तो पैकान-ए-क़ज़ा और भी हैं
मुंसिफ़-ए-शहर की वहदत पे न हर्फ़ आ जाए
लोग कहते हैं कि अर्बाब-ए-जफ़ा और भी हैं

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