है दिल में एक बात जिसे दर-ब-दर कहें
हर चंद उस में जान भी जाए मगर कहें
मश्शात-गान-ए-काकुल-ए-शम्अ’-ख़याल सब
किस को हरीफ़-ए-जल्वा-ए-बर्क़-ए-नज़र कहें
परछाइयाँ भी छोड़ गईं बे-कसी में साथ
अब ऐ शब-ए-हयात किसे हम-सफ़र कहें
फैले ग़ुबार-ए-रंग-ए-दरूँ तो सवाद-ए-शाम
फूटे लहू तो मौज-ए-ख़िराम-ए-सहर कहें
जुज़ हर्फ़-ए-शौक़ किस को कहें गुलशन-ए-समा
जुज़ नक़्श-ए-नाज़ किस को नशीद-ए-नज़र कहें
टोको उन्हें न लग़्ज़िश-ए-गुफ़्तार देख कर
ये लोग वो हैं जिन को ख़ुदा-ए-हुनर कहें
‘उर्फ़ी’ गदा-ए-शहर की सूरत अगर मिले
इक़्लीम-ए-शाइरी का उसे ताजवर कहें