हक़ीक़त-ए-ग़म-ए-उल्फ़त छुपा रहा हूँ मैं
शिकस्ता-दिल हूँ मगर मुस्कुरा रहा हूँ मैं
कमाल-ए-हौसला-ए-दिल दिखा रहा हूँ मैं
किसी से रस्म-ए-मोहब्बत बढ़ा रहा हूँ मैं
बदल दिया है मोहब्बत ने उन का तर्ज़-ए-अमल
अब उन में शान-ए-तकल्लुफ़ सी पा रहा हूँ मैं
मचल मचल के मैं कहता हूँ बैठिए तो सही
सँभल सँभल के वो कहते हैं जा रहा हूँ मैं
सुनी हुई सी बस इक धुन ज़रूर है लेकिन
ये ख़ुद ख़बर नहीं क्या गुनगुना रहा हूँ मैं