हक़ीक़तों को फ़साना बना के भूल गया
मैं तेरे इश्क़ की हर चोट खा के भूल गया
ज़रा ये दूरी-ए-एहसास-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ तो देख
कि मैं तुझे तिरे नज़दीक आ के भूल गया
अब उस से बढ़ के भी वारुफ़्तगी-ए-दिल क्या हो
कि तुझ को ज़ीस्त का हासिल बना के भूल गया
गुमान जिस पे रहा मंज़िलों का इक मुद्दत
वो रहगुज़ार भी मंज़िल में आ के भूल गया
अब ऐसी हैरत-ओ-वारफ़्तगी को क्या कहिए
दुआ को हाथ उठाए उठा के भूल गया
दिल-ओ-जिगर हैं कि गर्मी से पिघले जाते हैं
कोई चराग़-ए-तमन्ना जला के भूल गया