क़िस्मत-ए-शौक़ आज़मा न सके
उन से हम आँख भी मिला न सके
हम से याँ रंज-ए-हिज्र उठ न सका
वाँ वो मजबूर थे वो आ न सके
डर ये था रो न दें कहीं वो उन्हें
हम हँसी में भी गुदगुदा न सके
हम से दिल आप ने उठा तो लिया
पर कहीं और भी लगा न सके
अब कहाँ तुम कहाँ वो रब्त-ए-वफ़ा
याद भी जिस की हम दिला न सके
दिल में क्या क्या थे अर्ज़-ए-हाल के शौक़
उस ने पूछा तो कुछ बता न सके
हम तो क्या भूलते उन्हें ‘हसरत’
दिल से वो भी हमें भुला न सके