लज़्ज़त-ए-इश्क़-ओ-मुहब्बत ठोकरें खाने में है,
सर-बुलन्दी इश्क़ की नाकाम रह जाने में है..
सुनने वाले इस तरह सुनते हैं दिल को थाम कर,
दर्द दुनिया भर का जैसे मेरे अफ़साने में है..
क्यूँ ज़बान-ए-एहले आलम पे हो मेरी दास्ताँ,
कामयाबी ज़िन्दगी की राज़ बन जाने में है..
अब वो आयें या ना आयें ये तो है मेरा नसीब,
इक तसव्वुर उन का मेरे दिल के काशाने में है..
ख़ंजर-ए-क़ातिल तिरी अब और क्या ख़ातिर करूँ,
अम्बर-ए-नाशाद का ख़ूँ तेरे नज़राने में है..!!