एक पर्वाज़ को भी रुख़्सत-ए-सय्याद नहीं
वर्ना ये कुंज-ए-क़फ़स बैज़ा-ए-फ़ौलाद नहीं
शैख़-ए-उज़्लत तो तह-ए-ख़ाक भी पहुँचेगी बहम
मुफ़्त है सैर कि ये आलम-ए-ईजाद नहीं
दाद ले छोड़ूँ मैं सय्याद से अपनी लेकिन
ज़ोफ़ से मेरे तईं ताक़त-ए-फ़रयाद नहीं
क्यूँ ही मा’ज़ूर भी रख यूँ तो समझ दिल में शैख़
ये क़दह-ख़्वार मिरे क़ाबिल-ए-इरशाद नहीं
बे-सुतूँ भी है वही और वही जू-ए-शीर
था नमक शोहरत-ए-शीरीं का सो फ़रहाद नहीं
क्या कहूँ ‘मीर’ फ़रामोश किया उन ने तुझे
मैं तो तक़रीब भी की पर तू उसे याद नहीं