hum khaak hain aur khaak

हम ख़ाक हैं और ख़ाक ही मावा है हमारा
ख़ाकी तो वोह आदम जदे आ’ला है हमारा

अल्लाह हमें ख़ाक करे अपनी त़लब में
येह ख़ाक तो सरकार से तमग़ा है हमारा

जिस ख़ाक पे रखते थे क़दम सय्यिदे अ़ालम
उस ख़ाक पे क़ुरबां दिले शैदा है हमारा

ख़म हो गई पुश्ते फ़लक इस त़ा’ने ज़मीं से
सुन हम पे मदीना है वोह रुत्बा है हमारा

उस ने ल-क़बे ख़ाक शहन्शाह से पाया
जो ह़ैदरे कर्रार कि मौला है हमारा

ऐ मुद्दइ़यो ! ख़ाक को तुम ख़ाक न समझे
इस ख़ाक में मदफ़ूं शहे बत़्ह़ा है हमारा

है ख़ाक से ता’मीर मज़ारे शहे कौनैन
मा’मूर इसी ख़ाक से क़िब्ला है हमारा

हम ख़ाक उड़ाएंगे जो वोह ख़ाक न पाई
आबाद रज़ा जिस पे मदीना है हमारा

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kab gunah se kanara karuga

कब गुनाहों से कनारा मैं करूँगा या रब !
नेक कब ऐ मेरे अल्लाह ! बनूँगा या रब !

कब गुनाहों के मरज़ से मैं शिफ़ा पाउँगा
कब मैं बीमार, मदीने का बनूँगा या रब !

गर तेरे प्यारे का जल्वा न रहा पेशे नज़र
सख़्तियां नज़्अ की क्यूं कर मैं सहूंगा या रब !

नज़्अ के वक़्त मुझे जल्व-ए-महबूब दिखा
तेरा क्या जाएगा मैं शाद मरूंगा या रब !

क़ब्र में गर न मुहम्मद के नज़ारे होंगे
हश्र तक कैसे मैं फिर तन्हा रहूँगा या रब !

डंक मच्छर का सहा जाता नहीं, कैसे मैं फिर
क़ब्र में बिच्छू के डंक आह सहूंगा या रब !

धुप अँधेरे का भी वह्शत का बसेरा होगा
क़ब्र में कैसे अकेला मैं रहूँगा या रब !

गर कफ़न फाड़ के सांपों ने जमाया क़ब्ज़ा
हाए बरबादी ! कहां जा के छुपूँगा या रब !

क़ब्र महबूब के जल्वों से बसा दे मालिक
ये करम कर दे तो मैं शाद रहूँगा या रब !

गर तू नाराज़ हुवा मेरी हलाकत होगी
हाए ! मैं नारे जहन्नम में जलूँगा या रब !

अफ़्व कर और सदा के लिये राज़ी हो जा
गर करम कर दे तो जन्नत में रहूँगा या रब !

इज़्न से तेरे सरे हश्र कहें काश ! हुज़ूर
साथ अत्तार को जन्नत में रखूँगा या रब !

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marne ki hain tamannah

मरने की है तमन्ना ना जीने की आरज़ू
दश्ते-नबी से जाम को पीने की आरज़ू

इस बेख़ुदी के साथ निकल जाए मेरा दम
गलियों में यार की, ये कमीने की आरज़ू

हुस्न तो मिल गया है युसूफ को दोस्तो,
फूलों को मुस्तफ़ा के पसीने की आरज़ू

इतना हसीन हो जो भरे आँखें नूर से
किस्मत जगा दे ऐसे नगीने की आरज़ू

मंजधार में तिरे जो, तूफ़ान से लड़े जो
डूबे कभी ना ऐसे सफीने की आरज़ू

मांगा किसी ने ज़र और मरने के वास्ते
आ कर दरे नबी पे किसी ने की आरज़ू

खाए वतन के नाम पर जो खुद पे गोलियां
या रब ! मुझे भी उस ही सीने की आरज़ू

जो भी वहां पे मर गया बेख़ुद, जी गया
मुझ को वहां पे मरके है जीने की आरज़ू

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karam tumhara rahega aaka

करम तुम्हारा रहेगा आक़ा, हम आसियों का यही गुज़ारा
तुम्हारे दर पे पड़े रहेंगे, तुम्ही ग़रीबो का हो सहारा

तुम्ही हमारे हो शाफ-ए-मेहशर, तुम्ही हमारे ग़रीब-परवर
न भूले दुनियाँ में जब हमें तुम, तो सारा मेहशर ही है तुम्हारा

हाँ ! सदक़ा आले-अ़ली का दे दो, तुम अपने हर एक वली का दे दो
हाँ ! दे दो सदक़ा-ए-ज़हरा दे दो, हाँ ! सब से आली है घर तुम्हारा

करम ये रब ने किया है हम पर, बनाया इस ने तुम्हारा है दर
बताओ जाऊं कहाँ मैं दर-दर, है कौन आक़ा मेरा सहारा

है मेरा ईमां ये सब से आली, मैं अपने मुर्शिद का हूँ सुवाली
हाँ ! नाम-ए-अ़त्तार है जहां में, वही तो सब से तुम्हारा प्यारा

खड़ा है मीज़ान पे ये अयां, कहाँ हो आक़ा फंसी है ये जां
नहीं है हुस्ने-अ़मल, हाँ ! लेकिन, ये बस तुम्हारा है बस तुम्हारा

करम तुम्हारा रहेगा आक़ा, हम आसियों का यही गुज़ारा
तुम्हारे दर पे पड़े रहेंगे, तुम्ही ग़रीबो का हो सहारा

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alfaaz nhi milte sarkar ke

अल्फ़ाज़ नहीं मिलते सरकार को क्या कहिये
जिब्रील सलामी दे दरबार को क्या कहिये

बस एक पलक झपकी मेअराज हुई पूरी
उस साहिबे-रिफ़अत की रफ़्तार को क्या कहिये

एक एक सहाबी पर फ़िरदौस भी नाज़ां है
सिद्दीक़ उमर उस्मां क़र्रार को क्या कहिये

वो ग़ार के जिसने एक तारीख़ बनाई है
उस ग़ार को क्या कहिये, उस यार को क्या कहिये

नज़्मी तेरी नातों का अंदाज़ निराला है
मज़मून अनोखे हैं, अशआर को क्या कहिये

अल्फ़ाज़ नहीं मिलते सरकार को क्या कहिये
जिब्रील सलामी दे दरबार को क्या कहिये

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sarkar ko kya bala chand soraj

क्यूं भला चाँद सूरज सितारे इस कदर जगमगाए हुवे हैं
मुस्तफ़ा जाने-रहमत यक़ीनन रुख़ से पर्दा उठाए हुवे हैं

क्यूं भला चाँद सूरज सितारे इस कदर जगमगाए हुवे हैं

दी सदाक़त अदालत सख़ावत और अता की है शाने सुजाअत
देखो शेरे ख़ुदा बाब-ए-ख़ैबर उँगलियों पर नचाए हुवे हैं

क्यूं भला चाँद सूरज सितारे इस कदर जगमगाए हुवे हैं

तीर तलवार बरछी हैं भाले, है पड़े ज़ाहिरन जां के लाले
मुस्कुराते हुवे नन्हें असग़र करबला को हिलाए हुवे हैं

क्यूं भला चाँद सूरज सितारे इस कदर जगमगाए हुवे हैं

आला हज़रत ने ईमां बचाया, इश्क़े-अहमद की रह पर चलाया
सुल्हे-कुल्ली से ताजुश्शरीया आज सब को बचाए हुवे हैं

क्यूं भला चाँद सूरज सितारे इस कदर जगमगाए हुवे हैं

उनको अपनी तरह कहने वालो, पहले साबिर की अज़मत को जानो
बा-ख़ुदा ! देखो अपना जनाज़ा आप खुद ही पढ़ाए हुवे हैं

क्यूं भला चाँद सूरज सितारे इस कदर जगमगाए हुवे हैं

ग़ौसो-ख़्वाजा-रज़ा का करम है, उनके फैज़ान से दम में दम है
इस लिये हम तो अज़हर यक़ीनन सारे आलम पे छाए हुवे हैं

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aa jao gunahgaro

आ जाओ गुनहगारो, बे-ख़ौफ़ चले आओ
सरकार की रहमत तो है आम मदीने में

दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं
हसीं दुनिया के सब मंज़र निग़ाहें भूल जाती हैं

दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं
दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं

मिले जो भीक आक़ा के दरे दौलत से मंगतों को
तो शाहाने ज़माना की सखाएँ भूल जाती हैं

दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं
दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं

जो साइल मोहसिने आज़म के एहसां याद रखते हैं
उन्हें सब ताजदारों की अताएँ भूल जाती हैं

दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं
दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं

जो चूमे नक़्शे पा उनके सुरूरे क़ल्ब मिलता है
हो निकली दर्द में जितनी वो आहें भूल जाती हैं

दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं
दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं

छुपा लेते हैं जिस को भी मेरे सरकार दामन में
उन्हें आग़ोशे मादर की पनाहें भूल जाती हैं

दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं
दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं

बसा हो नज़र में जिस की रुखे महबूब का जल्वा
उसे शम्सो क़मर की सब ज़ियाएँ भूल जाती हैं

दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं
दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं

मैं देखूं अपने जुर्मो को तो दिल मेरा दहल जाए
जो रहमत उनकी याद आई सजाएं भूल जाती हैं

दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं
दरे सरकार पे जा कर ख़ताएँ भूल जाती हैं

सुनू जब नात मैं अहमद शबे असरा के दूल्हा की
मुझे अग़्यार की सिफ़्तो सनाएँ भूल जाती है

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wo shahre mohabbat jaha mustafa hain

वो शहरे-मुहब्बत जहाँ मुस्तफ़ा हैं
वहीँ घर बनाने को दिल चाहता है
वो सोने से कंकर, वो चांदी सी मिट्टी
नज़र में बसाने को दिल चाहता है

वो शहरे-मुहब्बत जहाँ मुस्तफ़ा हैं
वहीँ घर बनाने को दिल चाहता है

जो पूछा नबी ने के कुछ घर भी छोड़ा
तो सिद्दीक़े-अकबर के होंटो पे आया
वहाँ माल-ओ-दौलत की क्या है हक़ीक़त
जहाँ जां लुटाने को दिल चाहता है

वो शहरे-मुहब्बत जहाँ मुस्तफ़ा हैं
वहीँ घर बनाने को दिल चाहता है

जिहादे-मुहब्बत की आवाज़ गूंजी
कहा हन्ज़ला ने ये दुल्हन से अपनी
इजाज़त अगर दो तो जाम-ए-शहादत
लबों से लगाने को दिल चाहता है

वो शहरे-मुहब्बत जहाँ मुस्तफ़ा हैं
वहीँ घर बनाने को दिल चाहता है

वो नन्हा सा असग़र, वो एड़ी रगड़कर
येही कह रहा है वो ख़ैमे में रो कर
ए बाबा ! मैं पानी का प्यासा नहीं हूँ
मेरा सर कटाने को दिल चाहता है

वो शहरे-मुहब्बत जहाँ मुस्तफ़ा हैं
वहीँ घर बनाने को दिल चाहता है

सितारों से ये चाँद कहता है हर दम
तुम्हें क्या पता है वो टुकड़ों का आलम
इशारे में आक़ा के इतना मज़ा था
के फिर टूट जानें को दिल चाहता है

वो शहरे-मुहब्बत जहाँ मुस्तफ़ा हैं
वहीँ घर बनाने को दिल चाहता है

जो देखा है रू-ए-जमाले-रिसालत
तो ताहिर ! उमर मुस्तफ़ा से ये बोले
बड़ी आप से दुश्मनी थी मगर अब
ग़ुलामी में आने को दिल चाहता है

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ghause azam ka diwana

ग़ौसे आज़म का दीवाना
वो है ख़्वाजा का मस्ताना
जो मुहम्मद पे दिल से फ़िदा है
वो बरेली का अहमद रज़ा है

दसवीं तारीख थी, माहे शव्वाल था
घर नक़ी खान के बेटा पैदा हुवा
नाम अहमद रज़ा जिस का रखा गया
आला हज़रत ज़माने का वो बन गया
वो मुजद्दिदे-ज़माना, इल्मो-हिक़मत का खज़ाना
जिस ने बचपन में फ़तवा दिया है
वो बरेली का अहमद रज़ा है

जब वो पैदा हुवा नूरी साए तले
वादी-ए-नज्द में आ गए ज़लज़ले
कैसे उसकी फ़ज़ीलत का सूरज ढले
जिस की अज़मत का सिक्का अरब में चले
जिस का खाएं उसका गाएं, उस का नारा हम लगाएं
जिस का नारा अरब में लगा है
वो बरेली का अहमद रज़ा है

जब रज़ा खां को बैअत की ख़्वाहिश हुई
पहुंचे मारेहरा और उम्र बाइस की थी
फैज़े-बरकात से ऐसी बरकत मिली
साथ बैअत के फ़ौरन ख़िलाफ़त मिली
आला हज़रत उनको तन्हा सिर्फ मैं ही नहीं कहता
अच्छे अच्छों को कहना पड़ा है
वो बरेली का अहमद रज़ा है

उस मुजद्दिद ने लिखा है ऐसा सलाम
जिस को कहती है दुनिया इमामुल-कलाम
पढ़ रहे हैं फिरिश्ते जिसे सुब्हो-शाम
मुस्तफ़ा जाने-रेहमत पे लाखो सलाम
प्यारा प्यारा ये सलाम, किस ने लिखा ये कलाम?
पूछते क्या हो सब को पता है
वो बरेली का अहमद रज़ा है

मसलके बू-हनीफ़ा का एलान है
मसलके आला हज़रत मेरी शान है
जो उलझता है इस से वो ताबान है
वो तो इन्सां नहीं बल्कि शैतान है
बू-हनीफ़ा ने जो लिखा आला हज़रत ने बताया
कौन कहता है मसलक नया है
वो बरेली का अहमद रज़ा है

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Aseero Ke Mushkil Kusha Ghaus e Aazam

Aseero Ke Mushkil Kusha Gaus e Aazam
Faqeeron Ke Haajat Rawaa Gaus e Aazam

Ghira Hai Balaaoñ Meiñ Bandaa Tumhara
Madad Ke Liye Aao Ya Gaus E Aazam

Tere Haath Meiñ Haath Maine Diya Hai
Tere Haath Hai Laaj Ya Gaus E Azam

Mureedoñ Ko Khatra Nahiñ Behre Gam Se
Ke Bede Ke Haiñ Naakhuda Gaus E Azam

Tumheeñ Dukh Suno Apne Aafat Zadoñ Ka
Tumheeñ Dard Ki Do Dawa Gaus E Aazam

Bhañwar Meiñ Phansa Hai Hamara Safeena
Bachaa Gaus E Aazam Bachaa Gaus E Aazam

Jo Dukh Bhar Rahaa Hooñ Jo Gam Seh Rahaa Hooñ
Kahooñ Kis Se Tere Siwa Gaus E Aazam

Zamaane Ke Dukh Dard Ki Ranj O Gam Ki
Tere Haath Meiñ Hai Dawaa Gaus E Azam

Agar Sultanat Ki Hawas Ho Faqeeroñ
Kaho “Shai Al Lillah” Ya Gaus E Aazam

Nikaala Hai Pehle Tho Doobe Huwoñ Ko
Aur Ab Doobtoñ Ko Bacha Gaus E Aazam

Jise Khalq Kehti Hai Pyaara Khuda Ka
Usi Ka Hai Thu Laadla Gaus E Aazam

Phañsa Hai Tabaahi Meiñ Beda Hamaara
Sahara Lagaa Dhu Zara Ghous E Aazam

Mashaaikh Jahaañ Aaye Bahr E Gadaai
Wo Hai Teri Daulat Saraa Gaus E Aazam

Meri Mushkiloñ Ko Bhi Aasan Kijiye
Ke Haiñ Aap Mushkil Kusha Gaus E Aazam

Wahaañ Sar Jhukaate Haiñ Sab Uñche Uñche
Jahaañ Hai Tera Naqsh E Paa Gaus E Aazam

Qasam Hai Ke Mushkil Ko Mushkil Na Paaya
Kaha Hum Ne Jis Waqt Yaa Gaus E Aazam

Muje Apni Ulfat Meiñ Aisaa Guma De
Na Paaoñ Phir Apna Pataa Gaus E Aazam

Bachaale Gulaamoñ Ko Majbooriyoñ Se
Ke Tu Abd E Qaadir Hai Yaa Gaus E Aazam

Kahe Kis Se Jaakar HASAN Apne Dil Ki
Suney Kaun Tere Siwaa Gaus E Aazam

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