शैख़ साहब से रस्म-ओ-राह न की
शुक्र है ज़िंदगी तबाह न की
तुझ को देखा तो सेर-चश्म हुए
तुझ को चाहा तो और चाह न की
तेरे दस्त-ए-सितम का इज्ज़ नहीं
दिल ही काफ़िर था जिस ने आह न की
थे शब-ए-हिज्र काम और बहुत
हम ने फ़िक्र-ए-दिल-ए-तबाह न की
कौन क़ातिल बचा है शहर में ‘फ़ैज़’
जिस से यारों ने रस्म-ओ-राह न की