तमन्ना बन गई है माया-ए-इल्ज़ाम क्या होगा
मगर दिल है अभी तक तिश्ना-ए-पैग़ाम क्या होगा
वो बेताब-ए-तमाशा ही सही ऐ ताब-ए-नज़्ज़ारा
लरज़ उठता है दिल ये सोच कर अंजाम क्या होगा
यहाँ जो कुछ भी है वो परतव-ए-एहसास है साक़ी
ब-जुज़ बादा जवाब-ए-गर्दिश-ए-अय्याम क्या होगा
कभी जिस के यक़ीं से काएनात-ए-इश्क़ रौशन थी
वही अब है असीर-ए-हल्क़ा-ए-औहाम क्या होगा
जुनून-ए-शौक़ का आलम हमा मस्ती सही लेकिन
ये आलम भी जवाब-ए-शोख़ी-ए-पैग़ाम क्या होगा
चले तो हो मिज़ाज-ए-यार की पुर्सिश को ऐ ‘बेकल’
मगर ये सोच लो अंदाज़-ए-इस्तिफ़्हाम क्या होगा